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बहुमुखी कृतित्व किन उपकरणों को लेकर अपनी श्रेष्ठता का दावा कर सकता है, उसके साथ उसे श्रेष्ठ बना देने का कौन-सा साधन है ?--सभी ओर से उनका हृदय जागरूक है, सचेत है। वह अतीत के उत्कर्ष पर मुग्ध हैं, और वर्तमान की हीनता पर क्षुब्ध । वह जानते हैं कि सत्य से दूर मानवश्रेष्ठता का दावा व्यर्थ है, तभी तो कहने को बाध्य होते है कि
"अखिल विश्व में एक सत्य ही जीवन श्रेष्ठ वनाता है, विना सत्य के जप-तप-योगाचार भ्रष्ट हो जाता है।
यह पृथ्वी, आकाश और यह रवि-शशि, तारा-मण्डल भी,
एक सत्य पर आधारित हैं, क्षुब्ध महोदधि चंचल भी। जो नर अपने मुख से वाणी वोल पुनः हट जाते हैं, नर-तन पाकर पशु से भी, वे जीवन नीच बिताते हैं ।
मर्द कहाँ वे जो निज मुख कहते थे सो करते थे,
अपने प्रण की पूर्ति हेतु जो हंसते-हंसते मरते थे। गाड़ी के पहिए की मानिंद पुरुष-वचन चल आज हुए, सुवह कहा कुछ, शाम कहा कुछ, टोके तो नाराज हुए।"
मानव हृदय की सात्विक प्रवृत्तियाँ विभव-विलास के वातावरण में उन्नति नहीं अपनाती, त्यागी-से-त्यागी हृदय भी कुछ देर के लिए ही सही, विभव-विलास की छाया में आत्म-विस्मृत-सा हो जाता है। हरिश्चन्द्र की कमजोरी भी ऐसे अवसर पर स्वाभाविक रूप में सामने पाती है। रानी शैव्या का सौन्दर्य, प्राप्त विभव-विलासों का आकर्षण, उसे कर्तव्य-क्षेत्र से दूर खींच कर राज-प्रासाद का बन्दी बना देता है। प्रजा-पालक नरेश अपने को प्रजा के दुःख और कष्टों से अलग कर लेता है-'मोह-निद्रा' की सृष्टि होती है-विभव-विलास, प्रिया पुत्र...... कर्तव्य की बाराखड़ी यहीं समाप्त । मगर रानी का हृदय इस ओर अचेत नहीं है, वह स्नेह-प्रेम को समझती है और अपने को भी समझती है। प्रजा के दुःख-कष्ट उसकी आत्मा को कम्पित कर देते हैं वह सोचने को बाध्य होती है
"रूप-लब्ध नर मोह-पाश में बँधा प्रेम क्या कर सकता, श्वेत मृत्तिका-मोहित कैसे जीवन-तत्त्व परख सकता।
मैं कौशल की रानी हैं, बस नहीं भोग में भूलूगी, कर्म-योग की कण्टक-दोला पर ही सन्तत झूलूगी।"