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कति चोट ि
की गीगा में ही पाणि
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इसमें का परिचय देवा --
"मिने यदि
न लेगा तभी गण
उप मेरे गंजी
गाना | विक
अपना शु
कुछ मदन मगर मित्र न निभाएगा।
जीवन की मुगवत नाग मेगा तुझे करना ही गो
प्रदन निजगर की महिमानी
।"
हो गई। द उल
वकील की
रानी के पतिव्रता सेठानी मनोरमा ने पति पर पूर्ण ही भगवान भजन में अपना मन लगा दिया था ।
पूर्वक
"सागरी संयारा अति ही ॠण किया। एकमात्र जिनराज भजन में अविचल नियमन गोया ॥"
"
'धर्मवीर सुदर्शन' में कविजी के प्राध्यात्मिक भावों की भी सुन्दर झलक हमें देखने को मिलती है । अध्यात्म से राजा तो क्या, मात विश्व नत मस्तक हो जाता है। हृदय के कुविचारों की शान्ति के लिए मानव-मन को अध्यात्म का ही सहारा लेना श्रेयस्कर है। इ कुविचारों का नाश होता है और जीवन परमात्मा की लय में लीन हो जाता है । सेठ सुदर्शन भी झूली पर जाने से पहले कुछ ऐसा ही उपदेश जनता को देते हैं-
"राज तो क्या, अखिल विश्व भी नतमस्तक हो जाता है । आध्यात्मिकता का जब सच्चा भाव हृदय में जाता है | " कवि ने उन महापुरुषों की वन्दना की है, जो मृत्यु का आह्वान भी हँसते हुए करते हैं, जिन्हें सत्य के पथ से मौत भी कभी नहीं दिगा सकती है । धर्मवीर सुदर्शन एक ऐसा ही साधक था और कवि ने उसकी निर्भीकता का वर्णन इस प्रकार किया है
"जीवन पाने पर तो सारी दुनियां वन्दनीय वह जो मरने पर भी
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हड़ हड़ हंसती है । रखता मस्ती है |"
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