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व्यक्तित्व और कृतित्व
ग्रमर-काव्य का महामानव हरिश्चन्द्र राजनीति का एक मंजा हुआ योद्धा भी है, और इसी धारणा के वशीभूत होकर कौशिक ऋषि भी मन ही मन परास्त है
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"हरिश्चन्द्र का उत्तर सुनकर कौशिक ऋषि कुछ घबराए, मानस-नभ में उमड़ विकल्पों-संकल्पों के घन छाए ।" दानी हरिश्चन्द्र ने पल भर में अपना राज्य ऋषिवर को दान में दे दिया वही राज्य सिंहासन जिसके लिए ग्राज का विश्व अशान्तमय दीखता है और वम की तैयारी करता है। विश्व युद्ध की सम्भावनाएँ आज इन्हीं राज्यों के कारण संसार में व्याप्त हैं, किन्तु प्रतीत भारत के महापुरुष राजाओं ने जिस सहृदयता के साथ इन राज्यों को तिलांजलि दी, वह वास्तव में अमर है । हरिश्चन्द्र के राज्य-दान को कवि जी ने अपने गीतों में इस प्रकार उतार दिया है
अभी समर्पण करता हूँ, देने का दम भरता हूँ ।" तथा कायर पुरुषों की परिभाषा
" मांग विकट क्या तुच्छ राज्य है, तन माँगे तो इसको भी मैं अमर कवि ने को कुछ इस प्रकार वताया है
वीर पुरुषों की
" मानव जग में वीर पुरुष ही नाम अमर कर जाते हैं, कायर नर तो जीवन भर वस रो-रोकर मर जाते हैं । वीर पुरुष ही रण में तलवारों के जौहर दिखलाते, मातृ-भूमि की रक्षा के हित जीवन भेंट चढ़ा जाते । "
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"वह कायर क्या देंगे जो मरते हों कौड़ी -कौड़ी पर, खाते-देते देख ग्रन्य को, जो कंपते हों थर ! थर ! थर !"
कौशिक ऋषि का कर्ज देने के लिए हरिश्चन्द्र ने अपनी पत्नी को वेचा तथा वे खुद विके, परन्तु उनका साहस नहीं गया ।
"धर्मवीर नर संकट पाकर और अधिक दृढ़ होता है, कन्दुक चोट भूमि की खाकर दुगना उत्प्लुत होता है ।" भङ्गी के यहाँ विक कर, दास वनकर भी हरिश्चन्द्र का सत्य धर्म- पालन कम नहीं होता है