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व्यक्तित्व और कृतित्व
सकता है । संयम से ही विकारों का उन्मूलन होता है, और विचारों का उन्नयन भी होता है । संयम का अर्थ है-प्राध्यात्मिक उत्कर्ष, न कि अपने आदर एवं सत्कार की संयोजना । जो व्यक्ति संयम-हीन है, वह कभी भी ग्रपने जीवन का उत्कर्ष नहीं साध सकता - भले ही वह कितना बड़ा पण्डित हो गया हो, क्योंकि क्रिया विना का ज्ञान, केवल भार मात्र होता है । प्रचार की पवित्रता ही वस्तुतः धर्म का मुख्य आधार है जीवन की विकृति को कवि जी कभी सहन नहीं करते। वे साधक के जीवन को पावन देखना चाहते हैं ।
कवि जी आचार-शून्य पाण्डित्य को कभी पसन्द नहीं करते । वे कहते हैं
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"आचार-हीन पाण्डित्य घुन लगी लकड़ी के खोखला होता है । रोगन की पालिश उसे बाहर से उसके अन्दर शक्ति नहीं डाल सकती । "
उपाध्याय जी संसार भर के उपदेशकों को सम्वोधन करके कहते हैं
"मैं भू-मण्डल पर के सभी धर्म-गुरुत्रों से एवं कहना चाहता हूँ, कि वे जहाँ कहीं धर्म-प्रचार करने अपने धर्मशास्त्रों के साथ अपने सुन्दर आचरणों की ले जाया करें । कागज की पोथी की अपेक्षा मानव के की पोथी का अधिक व्यापक एवं गहरा प्रभाव पड़ता है । ग्राचार जीवित पोथी है ।"
समान अन्दर से चमका सकती है,
" शब्दों की अपेक्षा कर्म अधिक जोर से धर्म-साधको, तुम चुप रहो, अपने आचरण को
धर्म-प्रचारकों से जाएं, वहाँ अपने
पुस्तकें भी साथ में
मन पर आचरण
एक स्थान पर कवि जी मनुष्य को सम्बोधित करके कहते हैं
" मनुष्य, तू अपनी ही इच्छात्रों के हाथ का खिलौना बन रहा है । तेरा गौरव इच्छाओं द्वारा शासित होने में नहीं है, अपितु अपने को उनका शासक बनाने में है । तू इच्छात्रों का दास नहीं, स्वामी वन !” अपने एक प्रवचन में कवि जी अपनी प्रोजस्विनी वाणी में कहते हैं
बोलते हैं । संसार के वोलने दो । जनता
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