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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
कवि जी के व्यक्तित्व में वर्तमान युग की समग्र विधाओं का समावेश हो जाने से वे इस वर्तमान युग के निर्माता हैं। वाणी से, कलम से और कर्म से भी। व्यक्तित्व का आचार-पक्ष :
कवि जी के व्यक्तित्व का आचार-पक्ष अत्यन्त समुज्ज्वल है। कवि जी का जीवन—विचार और आचार की मधुर मिलन-भूमि है। उनके विचार का अन्तिम विन्दु है—ाचार, और प्राचार का अन्तिम विन्दु है-विचार ! विचार और प्राचार का सन्तुलित समन्वय ही वस्तुतः 'कवि जी' पद का वाच्यार्थ है। गम्भीर चिन्तन और प्रखर प्राचार-कवि जी की जीवन-साधना का सार है।
कवि जी के विचार में स्थानकवासी जैन-धर्म का मौलिक आधार है-चैतन्य देव की आराधना और विशुद्ध चारित्र की साधना । साधक को जो कुछ भी पाना है, वह अपने अन्दर से ही पाना है। विचार को आचार बनाना और प्राचार को विचार बनाना यही साधना का मूल संलक्ष्य है।
ज्ञानवान होने का सार है-संयमवान् होना । संयम का अर्थ हैअपने आप पर अपना नियन्त्रण। यह नियन्त्रण किसी के दबाव से नहीं, स्वतः सहजभाव में होना चाहिए। मानव-जीवन में संयम व मर्यादा का बड़ा महत्त्व है। जब मनुष्य अपने आप को संयमित एवं मर्यादित रखने की कला हस्त-गत कर लेता है, तब वह सच्चे अर्थ में ज्ञानी और संयमी बनता है।
कवि जी का कहना है कि-"भौतिक भाव से हटकर अध्यात्मभाव में स्थिर हो जाना—यही तो स्थानकवासी जैन-धर्म का स्वस्थ और मंगलमय दृष्टिकोण कहा जा सकता है । अमर आत्म-देव की आराधना के साधन भी अमर ही होने चाहिए। शाश्वत की साधना, अशाश्वत से नहीं की जा सकती है।"
अपने लेखों में और भाषणों में एकाधिक बार कवि जी इस बात को कह चुके हैं-"यदि जिनत्व पाना हो, तो निजत्व की साधना करो ।' सर्वतोमहान् वह है, जो अपने को अपने अनुशासन में रख