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बहुमुखी कृतित्व
१०५ पति को राज्य-कार्य से अपने कारण विरक्त देखकर द्रवित हो उठती है और फिर सादगी से जीवन व्यतीत करने लगती है। और उस महानारी से आधुनिक नारी की तुलना करते हुए कवि ने लिखा है
"आज नारियां अपने पति को, मोह-पाश में रखने को, करती क्या-क्या जादू-टोने, गिरा गर्त में अपने को। कहां पूर्व युग तारा देखो, निष्कलंक पथ पर चलती, स्वयं भोग तज पति के हित, दृढ़-त्याग साधना में ढलती।"
एक पतिव्रता पत्नी के रूप में तारा को कवि ने महान् माना है । पति हरिश्चन्द्र के वन-गमन पर तारा कह उठती है___ "निर्जन वन में कहाँ भटकते होंगे मेरे प्राणाधार !"
जिस प्रकार गुप्त जी द्वारा चित्रित नारी यशोधरा और उमिला पति-वियोग में उन कुजों और लताओं को याद करके बहुत रोती हैं, जहां अपना समय उन्होंने पति के साथ बिताया था, उसी प्रकार अमर काव्य की नारी तारा भी रोती है
___ "यही कुन है, जिसमें पति के संग अनेकों दिन बीते।"
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"अाज वही सुख-कुज, कुंज हा ! मुझे काटने आया ।"
तारा की विरह-व्यथा का चित्रण करने में कवि को खूब सफलता मिली है।
__ "पतिदेव आज तुम कहाँ, दिल मेरा बेकरार है।" और रानी विरह की अन्तिम अनुभूति का शिकार हो जाती है ।
"रानी के दुखित अन्तर में लगी उमड़ने शोक घटा, मूर्छा खाकर पड़ी भूमि पर जैसे जड़ से वृक्ष कटा।"
साम्राज्ञी तारा अपने पति को किसी भी परिस्थिति में नहीं छोड़ सकती, क्योंकि वह वीर क्षत्रिय बाला तथा भारत की नारियों का प्रतिनिधित्व कर रही है। देखिए
"डरने की क्या बात आपकी दासी हूँ मैं भी स्वामी । वीर क्षत्रिया वाला हूँ मैं श्रीचरणों की अनुगामी ।" १४