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व्यक्तित्व और कृतित्व
"प्रत्यक्ष में जो कुछ महत्व दिखाई देता है, वह सब गुणों का ही है, जाति का नहीं । जो लोग जाति को महत्व देते हैं, वे वास्तव में भयंकर भूल करते हैं, क्योंकि जाति की महत्ता किसी भाँति भी सिद्ध नहीं होती । चाण्डाल कुल में पैदा हुआ हरिकेशी मुनि, अपने गुणों के वल से आज किस पद पर पहुँचा है । इसकी महत्ता के सामने विचारे जन्मतः ब्राह्मण क्या महत्ता रखते हैं ? महानुभाव हरिकेशी में अव चाण्डालपन का क्या शेप है, वह तो ब्राह्मणों का भी ब्राह्मण बना हुआ है ।"
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भगवान् महावीर जातिवाद के कट्टर विरोधी थे । उन्होंने अपने धर्म प्रचार काल में जातिवाद का अत्यन्त कठोर खंडन किया था और एक तरह उस समय जातिवाद का अस्तित्व ही नष्ट कर दिया था । जातिवाद के खण्डन में उनकी युक्तियाँ बड़ी ही सचोट एवं अकाट्य हैं । जहाँ कहीं जातिवाद का प्रसङ्ग प्राया, वहाँ भगवान् ने केवल पाँच जातियाँ ही स्वीकार की हैं, जो कि जन्म से मृत्यु पर्यन्त रही हैं, बीच में भंग नहीं होती । वे पाँच जातियाँ ये हैं- एकेन्द्रिय, हीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । इनके अतिरिक्त ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि लौकिक जातियों का जाति रूप से आगम साहित्य में कहीं पर भी विधानात्मक उल्लेख नहीं मिलता । यदि श्रमण भगवान् महावीर प्रचलित जातिवाद को सचमुच मानते होते, तो वे वैदिक धर्म की भाँति कदापि अन्त्यज लोगों को अपने संघ में आदर योग्य स्थान नहीं देते । भगवान् ने ग्रन्त्यज तो क्या, अनार्यों तथा म्लेच्छों तक को भी दीक्षा लेने का अधिकार दिया है और अन्त में मोक्ष पाने का भी बड़े जोरदार शब्दों में समर्थन किया है । धर्मशास्त्र पढ़ने-पढ़ाने के विषय में भी सबके लिए खुला दरवाजा रखने की आज्ञा दी है । इस विषय में किसी के प्रति किसी भांति की प्रतिवन्धकता का होना उन्हें कतई पसन्द नहीं था ।
कैवल्य प्राप्त कर
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जातिवाद का खंडन करते हुए भगवान् ने स्पष्ट शब्दों में जातिवाद को घृणित वताया है । वास्तव में जिन्हें अस्पृश्य कहना चाहिए, वे पाप ही हैं । ऋतः घृणा के योग्य भी वे ही हैं, न कि मनुष्य । ग्रतः प्रत्येक का कर्तव्य है कि वह स्वयं अपने को पापों के कारण से ग्रस्पृश्य समझें और प्रचलित अस्पृश्यता को दूर करने के