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व्यक्तित्व और कृतित्व महावीर ने तो स्पष्ट शब्दों में कहा है कि कितने ही गृहस्थ सदाचार, संयम और विवेक की दृष्टि से साधु की अपेक्षा उच्च होते हैं- .
"संति एगेहि भिवहि, गारत्या संजमुत्तरा।" परन्तु, जैनों का एक छोटा-सा वर्ग-विशेप इस विचारधारा की पगडंडी पर भी चल रहा है कि मात्र साधु ही श्रेष्ठ है, पूज्य है, सुपात्र है । गृहस्थ-फिर चाहे वह कितना ही सदाचारी, धर्मोपासक, समाजसेवी क्यों न हो-पापी है, कुपात्र है। किसी युग में ब्राह्मण-संस्कृति में यह विचारधारा चल पड़ी थी कि जो कुछ श्रेष्ठता है, पूज्यता है, मानप्रतिष्ठा है, उस सब का अधिकारी एकमात्र ब्राह्मण है। यही विचारधारा उस वर्ग-विशेष में अपना उग्र रूप लेकर आई-जिसमें साधु को दान देना, उसकी परिचर्या या रक्षा करना धर्म है। और किसी दीन-दुःखी, संकटग्रस्त, असहाय या गृहस्थ मात्र को कुछ देना या उसकी सेवा करना सर्वथा पाप है। इस प्रकार जन-सेवा का सारा क्षेत्र सिमट कर साधु में सीमित हो गया । इतना ही नहीं, जन-कल्याण एवं मानव मात्र की भलाई की प्रत्येक कल्याणी प्रवृत्ति में सर्वथा स्वार्थ-पाप मान वैठे। गत दिनों में समाचार-पत्रों में उस सम्प्रदाय के आचार्य का एक भाषण प्रकाशित हुआ था, जिससे उस सम्प्रदाय की मूलधारा स्पष्ट हो जाती है । उस में कहा गया था कि-"मनुष्यों की भलाई करना स्वार्थ है। उनकी भाषा में स्वार्थ का अर्थ है-पाप।"
उपाध्याय श्री जी ने वार्तालाप का सिलसिला जारी रखते हुए कहा-"जैन-धर्म इतना अनुदार नहीं है, जैसा कि कुछ लोगों ने समझ लिया है। वह तो आत्म-धर्म है । अतः उसमें अनुदारता को अवकाश कहाँ ? इसी दृष्टि से उसने एक. ईश्वर नहीं, अनन्त ईश्वर माने हैं। जैन-धर्म का महान् अाघोष है कि प्रत्येक आत्मा में परमात्म-भाव रहा हुयं है। परन्तु, उस पर वासनाओं का, विकारों का प्रावरण छाया हा है। यदि अहिंसा, सत्य तथा संयम की कठोर साधना द्वारा उस आवरण को पूर्णतः छिन्न-भिन्न कर दिया जाए, तो यह प्रात्मा ही परमात्म-पद पर प्रतिष्ठित हो जाता है, सदा काल के लिए अजर, अमर हो जाता है। महाश्रमण भगवान् महावीर की वह मृत्युञ्जयी वाणी २५०० वर्ष के वाद आज भी भारत के मैदानों में गूंज रही है