________________
७४
व्यक्तिन्व और कृतित्व
इच्छा मन के अन्दर ही दफन होकर रह जाएगी।" कवि जी स्वयं उसके घर भिक्षा को गए। दिल्ली में एक बार तो आश्चर्य की लहर दौड़ गई । लालाओं को यह वात बड़ी ही अनहोनी-सी लगी। आज तो उस भाई के घर अनेक सन्त गोचरी को जाते हैं। अव परहेज नहीं रहा है। परन्तु सर्वप्रथम सत्साहस के साथ मानसिक संकोच के द्वार खोलने का श्रेय कवि श्री जी को ही है।
भीनासर सम्मेलन से पूर्व कवि जी वर्षावास के लिए जयपुर आ रहे थे। खंडेला में बालूराम खटीक परिचय में पाए, प्रभावित हुए, और वस जैन-धर्म के गहरे रंग में रंग गए । अन्य भी कुछ भाई सत्संग का लाभ लेते रहे। तदनन्तर जयपुर के वर्षावास में लगभग ४०-५० खटीक परिवारों को जैन-धर्म में दीक्षित किया। उनके यहाँ आहार-पानी भी ग्रहण किया। खटीक भाइयों ने बहुत बड़ी संख्या में जैन-धर्म स्वीकार किया है । अव उन्हें "वीर वाल' कहते हैं । वीरवालों की संख्या बढ़ रही है।
अहिंसक समाज रचना के इस महाकार्य को पण्डित समीर मुनि जी वड़ी योग्यता और दक्षता के साथ प्रगति की ओर लेजा रहे हैं। समाज-सुधार के और समाज-निर्माण के इस पवित्र कार्य में समीर मुनि जी की सेवाओं को भुलाया नहीं जा सकेगा। वीरवाल समाज के इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाने योग्य है। आज भी वे इस पवित्र कार्य में संलग्न हैं ।
आगरा में भी लालमन जी और उनके सुपुत्र परमानन्द जी जैनधर्म का पालन करते हैं। दोनों पिता और पुत्र कवि जी के परम भक्त हैं। लालमन जी प्रतिदिन व्याख्यान में आते हैं। परमानन्द जी प्रतिदिन सामायिक करते हैं । हरिजन होकर भी ये जन-धर्म का पालन वड़ी दृढ़ता एवं श्रद्धा के साथ में करते हैं ।
हरिजनों के सम्बन्ध में कवि श्री जी के क्या विचार हैं ? जैन परम्परा में हरिजनों का क्या स्थान रहा है ? जैन-संघ में हरिजनों के प्रति क्या दृष्टिकोण था ? इस विपय में, मैं यहाँ पर कवि जी का एक निवन्ध उद्धृत कर रहा हूँ। इस पर से पाठक यह समझ सकेंगे, कि कवि जी का हरिजनों के प्रति क्या दृष्टिकोण है