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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
वे होते हैं गिरवी रखे हुए, उनका अपना कोई अस्तित्व नहीं रहता। उनका दिल और दिमाग स्वतन्त्र मार्ग नहीं बना पाता । चरवाहा जिधर भी हाँके, उन्हें उधर ही चलना होता है।
इसी प्रकार जो मनुष्य अपने आपको किसी सम्प्रदाय, गच्छ या गुट के खूटे से बांधे रखता है, अपने को गिरवी रख छोड़ता है, तो वह पशु-जीवन से किसी भाँति ऊपर नहीं उठ सकता है। संस्कृत साहित्य में दो शब्द आते हैं – 'समज' और 'समाज' । भाषा की दृष्टि से उनमें केवल एक मात्रा का ही अन्तर है। पर, प्रयोग की दृष्टि से उनमें बड़ा भारी अन्तर रहा है । पशुओं के समूह को 'समज' कहते हैं और मनुष्यों के समूह को 'समाज' कहते हैं। पशु एकत्रित किए जाते हैं, पर मनुष्य स्वयं ही एकत्रित होते हैं । पशुओं के एकत्रित होने का कोई उद्देश्य नहीं होता, कोई भी लक्ष्य नहीं होता। किन्तु मनुष्यों के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनका उद्देश्य होता है, लक्ष्य होता है। जिस प्रकार पशु स्वयं अपनी इच्छा से एकत्रित न होकर उनका 'समज' चरवाहे की इच्छा पर ही निर्भर होता है, उसी प्रकार आज का साधु वर्ग भी अखबारों की चोटों से, इधर-उधर के संघर्षों से एकत्रित किए जाते हैं । जिनमें अपना निजी चिन्तन नहीं, विवेक नहीं - उन्हें 'समाज' कैसे कहा जा सकता है, वह तो 'समज' है । - हमारा अजमेर में एकत्रित होना सहज ही हुआ है, और मैं समझता हूँ-हमारा यह मिलन भी मंगलमय होगा। किन्तु हमारा यह कार्य तभी मंगलमय होगा, जब हम सब मिलकर भगवान् महावीर की मान-मर्यादा को शान के साथ अक्षुण्ण रखने का संकल्प करेंगे । हमें जीवन की छोटी-मोटी समस्याएं घेरे रहती हैं, जिनके कारण हम कोई भी महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकते। जब साधु-सन्त किसी क्षेत्र में मिलते हैं, तब वहाँ एक सनसनी पूर्ण वातावरण फैल जाता है। दो-चार मंजिल दूरी से ही भय-सा छा जाता है कि अब क्या होगा? अन्दर में काना-फुसी चलने लग जाती है। अजमेर में एकत्रित होने से पूर्व मुझ से पूछा गया कि-महाराज, अब क्या होगा? मैंने कहा-"यदि हम मनुष्य हैं, विवेक-शील हैं , तो अच्छा ही होगा।"
___ साधु-जीवन मंगलमय होता है । साधु-सन्त जहां-कहीं भी एकत्रित होते हैं, वहाँ का वातावरण मंगलमय रहता ही चाहिए। वे