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व्यक्तित्व और कृतित्व
है। जैसे प्रात्मा को ही लो ! यह नित्य भी है, और अनित्य भी । द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य । व्यवहार में यह जो अपेक्षावाद है, वही वस्तुतः स्याद्वाद और अनेकान्तवाद है। वस्तु-तत्त्व को समझने का एक दृष्टिकोण-विशेष है। विचार-प्रकाशन की एक शैली है, विचार-प्रकटीकरण की एक पद्धति है।
समन्वयवाद, स्याद्वाद और अनेकान्त-दृष्टि के मूल वीज आगमों में, वीतराग वाणी में यत्र-तत्र विखरे पड़े हैं । परन्तु, स्याद्वाद के विशद्
और व्यवस्थित व्याख्याकारों में सिद्धसेन दिवाकर, समन्तभद्र, हरिभद्र, अकलंक देव, यशोविजय और माणिक्य नन्दी मुख्य हैं, जिन्होंने स्याद्वाद को विराट रूप दिया, महासिद्धान्त बना दिया। उसकी मुल भावना को अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित किया। उसकी युग-स्पर्शी व्याख्या करके उसे मानव जीवन का उपयोगी सिद्धान्त बना दिया।
स्याद्वाद के समर्थ व्याख्याकार आचार्यों के समक्ष जब विरोधी पक्ष की ओर से यह प्रश्न आया, कि-"एक ही वस्तु में एक साथउत्पत्ति, क्षति और स्थिति कैसे घटित हो सकती है ?" तव समन्वयवादी प्राचार्यों ने एक स्वर में, एक भावना में यों कहा, यह समाधान किया
"तीन मित्र वाजार में गए। एक सोने का कलश लेने, दूसरा सोने का ताज लेने, और तीसरा खालिस सोना लेने । देखा, उन तीनों साथियों ने, एक सुनार अपनी दूकान पर बैठा सोने के कलश को तोड़ रहा है। पछा-इसे क्यों तोड़ रहे हो? जवाव मिला-इसका ताज वनाना है। एक ही स्वर्ण-वस्तु में कलशार्थी ने 'मति' देखी, ताजार्थी ने 'उत्पति' देखी और शुद्ध स्वार्थी ने 'स्थिति' देखी। प्रत्येक वस्तु में प्रतिपल-उत्पत्ति, क्षति और स्थिति-चलती रहती है। पर्याय की अपेक्षा से "उत्पत्ति' और 'क्षति' तथा द्रव्य की अपेक्षा से 'स्थिति' बनी रहती है। इस प्रकार एक ही वस्तु में तीनों धर्म रह सकते हैं, उनमें परस्पर कोई विरोध नहीं है । स्याद्वाद वस्तु-गत अनेक धमों में समन्वय माधता है, संगति करता है। विरोवों का अपेक्षा-भेद से समाधान करता है।