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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
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मैं आप से कह रहा था, कि जब तक जीवन में अनेकान्त का वसन्त नहीं आता, तब तक जीवन हरा-भरा नहीं हो सकता । उसमें समता के पुष्प नहीं खिल सकते । सम-भाव, सर्व-धर्म-समता, स्याद्वाद और अनेकान्त केवल वाणी में ही नहीं, बल्कि जीवन के उपवन में ही उतरना चाहिए। तभी धर्म की आराधना और सत्य की साधना की जा सकती है ।
अभी तक मैं समन्वयवाद की, स्याद्वाद की और अनेकान्त दृष्टि की शास्त्रीय व्याख्या कर रहा था । परन्तु अब अनेकान्त दृष्टि की व्यावहारिक व्याख्या भी करनी होगी। क्योंकि अनेकान्त या स्याद्वाद केवल सिद्धान्त ही नहीं, बल्कि जीवन के क्षेत्र में एक मधुर प्रयोग भी है । विचार और व्यवहार - जीवन के दोनों क्षेत्रों में इस सिद्धान्त की समान रूप से प्रतिष्ठापना है । स्याद्वाद या अनेकान्त क्या है ? इस प्रश्न का व्यावहारिक समाधान भी करना होगा और आचार्यो ने वैसा प्रयत्न किया भी है ।
शिष्य ने प्राचार्य से पूछा - " भगवन्, जिन-वाणी का सारभूत तत्त्व—यह अनेकान्त और स्याद्वाद क्या है ? इसका मानव जीवन में क्या उपयोग है ?" शिष्य की जिज्ञासा ने प्राचार्य के शान्त मानस में एक हल्का-सा कम्पन पैदा कर दिया । परन्तु कुछ क्षणों तक आचार्य इसलिए मौन रहे, कि उस महासिद्धान्त को इस लघुमति शिप्य के मन में कैसे उतारू ? आखिर प्राचार्य ने अपनी कुशाग्र बुद्धि
स्थूल जगत् के माध्यम से स्याद्वाद की व्याख्या प्रारंभ की । आचार्य ने अपना एक हाथ खड़ा किया, और कनिष्ठा तथा अनामिका अँगुलियो को शिष्य के सम्मुख करते हुए आचार्य ने पूछा - "वोलो, दोनों में छोटी कौन और बड़ी कौन ?" शिष्य ने तपाक से कहा- "अनामिका बड़ी है, और कनिष्ठा छोटी ।" आचार्य ने अपनी कनिष्ठा अंगुली समेट ली और मध्यमा को प्रसारित करके शिष्य से पूछा - " वोलो, तो अव कौन छोटी, और कौन बड़ी ?" शिष्य ने सहज भाव से कहा - " अव अनामिका छोटी है, और मध्यमा बड़ी ।" आचार्य ने मुस्कान के साथ कहा - " वत्स, यही तो स्याद्वाद है ।" अपेक्षा भेद से जैसे एक ही ग्रंगुली कभी वड़ी और कभी छोटी हो सकती है, वैसे ही अनेक धर्मात्मक एक ही वस्तु में कभी किसी धर्म की मुख्यता रहती है, कभी उसकी गौणता हो जाती
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