________________
व्यक्तित्व और कृतित्व
भी संकोच नहीं करेंगे । अनेकान्तवादी अपने जीवन 'भी' को महत्त्व देता है, 'ही' को नहीं । क्योंकि 'ही' में विवाद है । 'भी' में समाधान है, सत्य का जिज्ञासा है।
५०
व्यवहार में सदा संघर्ष है, वाद
सन्धान है, सत्य की
मैं आपसे कह रहा था, कि जैन दर्शन की संचारणा के अनुसार सत्य सवका एक है-यदि वह अपने ग्राप में वस्तुतः सत्य हो, तो ? विश्व के समस्त दर्शन, समग्र विचार -पद्धतियाँ जैन दर्शन के नयवाद में विलीन हो जाती हैं । ऋजुसूत्र नय में वौद्ध दर्शन, संग्रह नय में वेदान्त, नैगम नय में न्याय-वैशेषिक, शब्द नय में व्याकरण और व्यवहार नय में चार्वाक दर्शन ग्रन्तर्भुक्त हो जाता है । जिस प्रकार रंग-बिरंगे फूलों को एक सूत्र में गूंथने पर एक मनोहर माला तैयार हो जाती है, वैसे ही समस्त दर्शनों के सम्मिलन में से जैन दर्शन प्रकट हो जाता है | सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से विद्वेष नहीं करता, क्योंकि वह सम्पूर्ण नय-रूप दर्शनों को वात्सल्य भरी दृष्टि से देखता है, जैसे एक पिता अपने समस्त पुत्रों को स्नेहमयी दृष्टि से देखता है । इसी भावना को लेकर ग्रव्यात्मवादी सन्त ग्रानन्दघन ने कहा है
षड् दरसण जिन अंग भणीजे, न्याय षडंग जो साधे
'नमि' जिनवरना चरण उपासक,
रे ।
षड् दर्शन आराधे रे ।"
अव्यात्म योगी सन्त आनन्दघन ने अपने युग के उन लोगों को करारी फटकार वताई है, जो गच्छवाद का पोषण करते थे, पंथ-प्रणाली को प्रेरणा देते थे और मतभेद के कटु वीज वोते थे । फिर भी, जो अपने आप को सन्त और साधक कहने में ग्रमित गर्व अनुभव करते थे । 'ही' के सिद्धान्त में विश्वास रखकर भी जो 'भी' के सिद्धान्त का सुन्दर उपदेश झाड़ते थे । श्रानन्दघन ने स्पष्ट भाषा में कहा
" गच्छना भेद बहु नयरणे निहालतां,
तत्त्व नी वात करतां न लाजे । उदर भरणादि निज काज करतां थका,
मोह नडोना कलिकाल राजे ॥"