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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
लेते हैं, कि पुण्य से लड़का और पाप से लड़की होती है । लड़के-लड़की का आना और जाना, यह तो संसार का प्रवाह बह रहा है । इसमें एकान्त रूप से पुण्य-पाप की भ्रान्ति मत कीजिए।
यह जैन है, यह बौद्ध है, और यह हिन्दू है। कुछ लोग समाज में और राष्ट्र में धर्म को लेकर भी भेद-रेखा खड़ी करते हैं। पर, यह सोचने का एक गलत ढंग है। इस प्रकार सोचने से राष्ट्र में अनेक सत-भेद और फिर मनोभेद खड़े हो जाते हैं।
कवि जी से एक बार प्रश्न पूछा गया, कि-"क्या जैन हिन्दू हैं ?" इस प्रश्न के उत्तर में कवि जी ने जो कुछ विचार व्यक्त किए, वे बहुत ही मौलिक हैं । इस पर से उनकी सामाजिक समन्वय भावना का वड़ा सुन्दर परिचय मिलता है । इससे बढ़कर सामाजिक समन्वय और क्या होगा? मैं यहाँ पर वह प्रश्न और साथ ही उसका समाधान भी उद्धृत कर रहा हूँ
प्रश्न- जैन हिन्दू हैं अथवा उनसे अलग हैं ? इस सम्बन्ध में आपके क्या विचार ?
. उत्तर-इस प्रश्न का समाधान पाने के लिए हमें इतिहास की गहराई में डुवकी लगानी होगी । और उसके लिए विचार करना पड़ेगा कि दरअसल 'हिन्दू' शब्द हमारे इतिहास के पृष्ठों पर आया कहाँ से है ? वात यह है कि 'हिन्दू' यह अपना गढ़ा हुआ, बनाया हुआ या चलाया हुया शब्द नहीं है। यह तो हमें सिन्धु-सभ्यता की बदौलत मिला है। यानी हर हिन्दुस्तानी के लिए 'हिन्दू' शब्द दूसरों के द्वारा प्रयुक्त किया गया है, यह एक ऐतिहासिक तथ्य है।
जैन कहीं आकाश से नहीं बरस पड़े हैं। वे भी उसी हिन्दुस्तान में जन्मे हैं, जिसमें हिन्दुओं ने जन्म लिया है । वे सब महान् हिन्दू जाति के ही अभिन्न अंग हैं । जातीय, सामाजिक तथा राष्ट्रीय दृष्टि से हिन्दुओं से जैनों में कोई भेद नहीं हैं। हम जीवन के व्यवहारों में एक-दूसरे से बन्धे हुए हैं। ऐसा कोई नहीं, जो दूसरों से अलग और प्रतिकूल रह सके । पृथक् रहकर अपना अस्तित्व कायम रख सके । सह-अस्तित्व, सह-विचार, सह-व्यवहार और सह-जीवन-प्रत्येक हिन्दुस्तानी के जीवन का आदर्श रहा है । इसी आदर्श की शीतल छाया