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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
आज हमारे साधु-समाज में सामुहिक भावना का लोप होकर वैयक्तिक भावना का जोर बढ़ता जा रहा है। हम समाज के कल्याणकर्म से हटकर अपने ही कल्याण-विन्दु पर केन्द्रित होते जा रहे हैं। शायद हमने भूल से यह समझ लिया है, कि अपनी-अपनी सम्प्रदाय की उन्नति में ही समाज की उन्नति निहित है। इस भावना को बल देकर आज तक हमने अपनी समाज का तो अहित किया ही है, साथ में यह भी निश्चित है, कि हम अपना और अपनी सम्प्रदाय का भी कोई हित नहीं साध सके हैं।
आज के इस समाजवादी युग में हम अपने आप में सिमिट कर अपना विकास नहीं कर सकते हैं। एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र के सहयोग के विना आज जबकि जीवित नहीं रह सकता है, तब एक सम्प्रदाय, दूसरे सम्प्रदाय के सहयोग के विना अपना विकास कैसे कर सकता है ? साधु-समाज को आज नहीं, कल यह निर्णय करना ही होगा कि हम व्यक्तिगत रूप में जीवित नहीं रह सकते । अतः हम सब को मिल कर संघ वना लेना चाहिए । इस सिद्धान्त के विना हम न अपना ही विकास कर सकते हैं, और न समाज तथा धर्म का ही।
युग-चेतना का तिरस्कार करके कोई भी समाज फल-फूल नहीं सकता । युग की मांग को अब हम अधिक देर तक नहीं ठुकरा सकते हैं। और यदि हमने यह गलती की, तो इसका बुरा ही परिणाम होगा।
साधु-सम्मेलन का स्थान और तिथि निश्चित हो चुके हैं। इस शुभ अवसर को किसी भी भाँति विफल नहीं होने देना चाहिए। दुर्भाग्यवशात् यदि हमारा साधू-समाज जाने या अनजाने, अनुकूल या प्रतिकूल किसी भी परिस्थिति में, सम्मेलन में सम्मिलित न हो सका, तो इस प्रमाद से हमें ही नहीं, वरन् हमारे समाज और धर्म को भी निश्चय ही क्षति होगी।
. अतएव सम्मेल में सम्मिलित होने के लिए प्रत्येक प्रतिनिधि को दृढ़ संकल्प करके निश्चित स्थान की तरफ विहार करना ही श्रेयस्कर है, क्योंकि अब हमारे पास बहुत ही कम समय रह गया है। हमारा दो वर्ष का परिश्रम सफल होना ही चाहिए। यदि हम प्रामाणिकता के