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व्यक्तित्व र कृतित्व
साथ अपने गन्तव्य स्थान की तरफ चल पड़े, तो यह निश्चित है कि हम अवश्य ही सम्मेलन में पहुँच सकेंगे ।
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आज की बात केवल इतनी ही है । कुछ और भी है, अवसर मिला तो वह भी किसी उचित समय पर लिखने की अभिलापा रखता हूँ ।”
सन्त-सम्मेलन की श्रावश्यकता :
"किसी भी समाज, राष्ट्र और धर्म को जीवित रहना हो, तो उसका एक ही मार्ग है - प्रेम का, संगठन का । जीवित रहने का अर्थ यह नहीं है, कि कीड़े-मकोड़ों की भाँति गला - सड़ा जीवन व्यतीत किया जाए । जीवित रहने का अर्थ है - गौरव के साथ, मान-मर्यादा के साथ, इज्जत और प्रतिष्ठा के साथ शानदार जिन्दगी गुजारना । पर, यह तभी सम्भव है, जवकि समाज में एकता की भावना हो, सहानुभूति और परस्पर प्रेम-भाव हो ।
हमारा जीवन मंगलमय हो । वात बड़ी सुन्दर है, कि हम मंगलमय और प्रभुमय वनने की कामना करते हैं । पर, इसके लिए मूल में सुधार करने की महती आवश्यकता है । यदि अन्दर में वदवू भर रही हो, काम-क्रोध की ज्वाला दहक रही हो, द्व ेष की चिनगारी सुलग रही हो, मान और माया का तूफान चल रहा हो, तो कुछ होने जाने वाला नहीं है । ऊपर से प्रेम के, संगठन के और एकता के जोशीले नारे लगाने से भी कोई तथ्य नहीं निकल सकता । समाज का परिवर्तन, तो हृदय के परिवर्तन से ही हो सकता है ।
मैं समाज के जीवन को देखता हूँ कि वह अलग-अलग खुटों से बँधा है । आपको यह समझना चाहिए, कि खूटों से मनुष्यों को नहीं, पशुको वाँधा जाता है । यदि हमने अपने जीवन को अन्दर से साम्प्रदायिक खँटों से बाँध रखा है, तो कहना पड़ेगा कि हम अभी इन्सान की जिन्दगी नहीं विता सके हैं । हम मानव की तरह सोच नहीं सके हैं, प्रगति के पथ पर कदम नहीं बढ़ा सके हैं । ऐसी स्थिति में हमारा जीवन मनुष्यों जैसा नहीं, पशुओंों जैसा बन जाता है । क्योंकि पशुनों के हृदय, पशुयों के मस्तिष्क व पशुओं के नेत्र, पशुओं के कर्ण और पशुओं के हाथ-पैर उनके अपने नहीं होते - वे होते हैं, मांगे हुए,