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व्यक्तित्व और कृतित्व
जात था । इस प्रकार के प्रयत्नों को देख-सुन कर उनके मानस में बड़ी पीड़ा होती थी। विरोधी लोग संघटन को नष्ट-भ्रष्ट कर देने पर तुले हुए थे, और कवि जी महाराज उसे अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए सदा केटि-बद्ध रहते रहे । जिस संघटन को महान् परिश्रम से बनाया, जिसके निर्माण में अपने स्वास्थ्य की भी उन्होंने चिन्ता नहीं की, उसे छिन्नभिन्न होता देखकर उन्हें वहुत दुःख होता था।
निश्चय ही यदि कवि जी महाराज इतने सतर्क न रहते, और विरोध-पक्ष के कुचक्रों से समय-समय पर संघ की रक्षा न करते,, तो श्रमण-संघ कभी का छिन्न-भिन्न हो गया होता। बाहर के विरोध की इतनी चिन्ता न थी, जितनी अन्दर के विरोध की थी। श्रमण-संघ में कुछ लोग दुमुंहे थे, जो संघ-हित की हर वात पर दो बातें करते थे। वाहर में वे लोग संघ-हितेपी का चोगा पहने रहते थे, और अन्दर में फुट की दरार डालने में कभी चूकते नहीं थे। अतः उपाध्याय जी महाराज ने अनेक वार संघ के कुछ प्रमुख लोगों से इस विपय में समय रहते प्रयत्न करने के लिए और सतर्क रहने के लिए निरन्तर कहा। कुछ समय के लिए उसका परिणाम भी बहुत सुन्दर पाया। परन्तु स्वार्थ-त्याग के विना वह वातावरण अधिक काल तक जीवित रहना कठिन था। जव तक प्रयत्न सच्चे मन से न हो, तव तक उसका परिणाम भी स्थायी नहीं होता।
. एक बार तो विघटन की आवाज इतनी वुलन्द हो चुकी थी कि लोगों को यह विश्वास हो गया था कि अब श्रमण-संघ स्थिर नहीं रह सकेगा। परन्तु उपाध्याय अमर मुनि जी महाराज ने और श्वे० स्था० जैन कान्फ्रेंस के तत्कालीन अध्यक्ष विनयचन्द.भाई ने अपने पूरे प्रयत्न से संघ की रक्षा का संयुक्त प्रयत्न किया। फलतः विरोव-पक्ष का मनोरथ सफल न हो सका। उसी प्रसंग पर कवि जी महाराज ने एक सार्वजनिक वक्तव्य भी दिया था, जो बहुत ही मार्मिक और हृदयमस्पर्शी भी है। उसका कुछ अंश यहाँ पर देना कथमपि अनुचित न . होगा। उक्त वक्तव्य में कवि जी की संघटन-निष्ठा और उनकी दूरदशिता के स्पष्ट दर्शन होते हैं। वक्तव्य का शीर्पक है - "कंदम आगे बड़े, पीछे न हो."