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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व निर्णय कर लेना उनके स्वभाव में नहीं है। वे सोचते हैं खूब सोचते हैं, तव कहीं निर्णय करते हैं।
संघ में शासन अथवा अनुशासन होना चाहिए। इस तथ्य से. कवि जी का जरा-सा भी विरोध नहीं है। परन्तु शासन अयवा अनुशासन कैसा होना चाहिए ? इस विषय पर उनके अपने मौलिक विचार हैं । उनका अपना चिन्तन- है, अपना मनन है। संघ में स्वच्छन्दता, उच्छृखलता और उद्दण्डता को वे कभी सहन नहीं करते। वे स्वयं भी शासन में रहना चाहते हैं, और दूसरों को भी शासन में देखना चाहते हैं। यदि संघ में किसी प्रकार का अनुशासन नहीं रहेगा, तो वह संघ अधिक जीवित नहीं रह सकेगा। संघ की मर्यादा के लिए और व्यक्ति के स्वयं विकास के लिए भी कवि जी अनुशासन का प्रवल समर्थन करते हैं-एक वार.. नहीं, अनेकों वार किया भी है । अनुशासन के परिपालन में वे अपने पराये का और छोटे-बड़े का भेद स्वीकार नहीं करते । अनुशासन का पालन उभयतोमुखी होना चाहिएछोटों की ओर से भी और बड़ों की ओर से भी। अनुशासन के पालन की जितनी अपेक्षा छोटों से रखी जाती है, बड़ों से भी उतनी ही रखी जानी चाहिए। अपने इसी सिद्धान्त के अनुसार भीनासर सम्मेलन में भावना-हीन, साथ ही विवेक-शून्य अनुशासन का नारा लगाने वाले एक अधिकारी व्यक्ति की उन्होंने खुल कर आलोचना की थी।
कवि जी महाराज के शासन अथवा अनुशासन के विपय में क्या विचार हैं ? इस सम्बन्ध में, मैं यहाँ पर उनके एक प्रवचन का कुछ अंश उद्धत कर रहा है। जिसको पढ़कर पाठक उनके उस विषय में मननीय विचारों को जान सकेंगे.। यह प्रवचन भीनासर सम्मेलन के वाद का है, और श्री विनयचन्द भाई की प्रेरणा से दिया गया था। यह प्रवचन 'जैन प्रकाश में प्रकाशित हो चुका है
. "सचेतन जगत् में मनुष्य बुद्धिमान् एवं विचारशील प्राणी है। पशु-जगत् और पक्षी-जगत् अाज भी वैसा ही अविकसित है, जैसा कि श्राज से हजारों एवं लाखों वर्षो पूर्व प्रागैतिहासिक काल में था। ऊपर में देव-लोक और नीचे में नरक-लोक भी ज्यों का त्यों ही है।