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व्यक्तित्व और कृतित्व
कठोर होकर रहना चाहिए । जव तक ग्राचार्य का रौब न पड़ेगा, तब तक वह शासन करने में सफल नहीं हो सकता । परन्तु यह एक भ्रान्त विचारणा है, मिथ्या विचार है । प्राचार्य का शासन मधुर और मृदु होना चाहिए । प्रेम, स्नेह और सद्भाव के वल से ही प्राचार्य संघ का सफल नेतृत्व कर सकता है । जैन संस्कृति में प्राचार्य मधुर शासन का प्रतीक माना गया है ।
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ऐसे फूलों की,
ढक गया है । में अनुस्यूत
मेरे विचार में शासन —– फूलों की माला है जिसमें धागा तो है, परन्तु वह फूलों के सौन्दर्य में वस्तुतः इसी में फूल-माला का मूल्य है । धागा प्रत्येक फूल होता है, उसी से माला वनी रहती है, परन्तु वह धागा वाहर में दीखता नहीं है । इसी प्रकार आचार्य का शासन भी माला के सूत्र के समान होना चाहिए, जिसमें संघ का सौन्दर्य भी निखर सके, और संघ की एकता भी वनी रह सके । संघ में आचार्य का शासन रहे अवश्य, परन्तु वह पारस्परिक स्नेह सद्भाव के फूलों के नीचे ढका रहे । ऐसा न हो, फूलों को तोड़-मरोड़ कर या एक किनारे ढकेल कर शासन-सूत्र ऊपर निकल आए ।
जैन-संस्कृति में प्राचार्य, एक मधुर शासक माना गया है । ग्राचार्य यदि दक्ष है, देश-काल का ज्ञाता है, शासन करने में मधुर है, तो वह संघ को विकास के मार्ग पर ले जा सकता है। संघ कैसी और कितनी प्रगति कर रहा है ? इस सव का दायित्व प्राचार्य पर ही होता है । जिस शासक के शासन में वारवार विद्रोह, विक्षोभ और सन्तोप का वातावरण होता है, वह सफल शासक नहीं कहा
जा सकता ।
आचार्य के सम्वन्ध में भी यही सत्य लागू पड़ता है। संघ का विकास, संघ की प्रगति — इन सब का मूलाधार प्राचार्य का शासन ही है । प्राचार्य का शासन यदि मधुर, कोमल एवं सद्भाव पूर्ण होता है, तो वहाँ विद्रोह और विक्षोभ को जरा भी अवसर नहीं मिलता । संघ में सर्वत्र शान्ति और सन्तोप ही रहता है ।"
समन्वयवादी व्यक्तित्व :
कवि जी का व्यक्तित्व समन्वयवादी है । विरोध में समन्वय ढूँढना, उनके व्यक्तित्व की सहज वृत्ति है । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र