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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
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का विकार है । विकार को नष्ट करना ही वास्तविक धर्म है। धर्मों का विग्रह और कलह विना समन्वय के कभी नष्ट नहीं किया जा सकता।
कवि जी का धार्मिक समन्वय कैसा है ? वे कैसा समन्वय चाहते हैं ? उक्त प्रश्नों का समाधान पाने के लिए मैं यहाँ पर कवि जी महाराज का एक प्रवचन उद्धृत कर रहा हूँ, जिससे पाठक यह समझ सकें, कि कवि जी कैसा समन्वय चाहते हैं और उनके समन्वय का क्या स्वरूप है
"धर्म क्या है ? सत्य की जिज्ञासा, सत्य की साधना, सत्य का सन्धान । सत्य मानव-जीवन का परम सार तत्त्व है। प्रश्न-व्याकरण सूत्र में भागवत प्रवचन है-"सच्चं खु भगवं ।" सत्य साक्षात् भगवान् है । सत्य अनन्त है, अपरिमित है। उसे परिमित कहना, सीमित करना एक भूल है। सत्य को बाँधने की चेष्टा करना, संघर्ष को जन्म देना है। विवाद को खड़ा करना है। सत्य की उपासना करना धर्म है और सत्य को अपने तक ही सीमित बाँध रखना अधर्म है। पंथ और धर्म में आकाश-पाताल जैसा विराट् अन्तर है। पंथ परिमित है, सत्य अनन्त है। "मेरा सो सच्चा" यह पंथ की दृष्टि है। "सच्चा सो मेरा"यह सत्य की दृष्टि है । पंथ कभी विष-रूप भी हो सकता है, सत्य सदा अमृत ही रहता है।
अपने युग के महान् धर्म-वेत्ता, महान् दार्शनिक प्राचार्य हरिभद्र से एक बार पूछा गया--"इस विराट् विश्व में धर्म अनेक हैं, पंथ नाना हैं और विचारधारा भिन्न-भिन्न हैं । "नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम् ।" प्रत्येक मुनि का विचार अलग है, धारणा पृथक् है, और मान्यता भिन्न है। कपिल का योग-मार्ग है, व्यास का वेदान्त-विचार है, जैमिनी कर्मकाण्डवादी है, सांख्य ज्ञानवादी है-सभी के मार्ग भिन्न-भिन्न हैं । कौन सच्चा, कौन झूठा ? कौन सत्य के निकट है, और कौन सत्य से दूर है ? सत्य धर्म का आराधक कौन है, और सत्य धर्म का विराधक कौन है ?
___ समन्वयवाद के मर्म-वेत्ता आचार्य ने कहा-"चिन्ता की बात क्या ? जौहरी के पास अनेक रत्न विखरे पड़े रहते हैं। उसके पास यदि खरे-खोटे की परख के लिए कसौटी है, तो भय-चिन्ता की बात नहीं। जन-जीवन के परम पारखी परम प्रभु महावीर ने हम को परखने की