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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
स्थविर-कल्पी भिक्षु में इतनी शक्ति प्रकट नहीं हो पाती, कि वह निरालम्ब होकर अपनी जीवन-यात्रा का संचालन स्वयं कर सके। उसे सहयोगी की आवश्यकता रहती है। विकट परिस्थिति में जव वह लड़खड़ाने लगता है, तव मार्ग-दर्शक के रूप में उसे भी आचार्य की आवश्यकता रहती है। विधि और निषेध तथा उत्सर्ग और अपवाद के मर्मज्ञ प्राचार्य का नेतृत्व उसकी उलझी उलझनों को सहज में ही सुलझा देता है । इसी अर्थ में प्राचार्य-संघ का नेता, संघ का निर्देशक माना जाता है।
जिस समाज में, जिस सम्प्रदाय में और जिस राष्ट्र में संघर्ष अधिक होते हैं, मतभेद अधिक होते हैं और विद्रोह अधिक होते हैंजहाँ पर सदा युद्ध, फाँसी का तख्ता एवं कानून के डंडे घूमते रहते हैं, तो वह समाज, सम्प्रदाय और राष्ट्र आदर्श नहीं कहा जा सकता। वहाँ का मनुष्य-मनुष्य नहीं, पशु है। पशु विना डंडे के कोई भी काम नहीं करता । पशु को बाड़े में वन्द करना पड़े, तव भी डंडा चाहिए, और बाहर निकालने पर तो डंडा चाहिए ही। पशु विना डंडे के राहे-रास्त पर नहीं आता, परन्तु मनुष्य के सम्बन्ध यह सोचना गलत होगा । मनुष्य के लिए केवल संकेत ही पर्याप्त होता है, क्योंकि वह एक बुद्धिमान प्राणी है। बुद्धि और विवेक का प्रकाश उसे मिला है। मनुष्यों में भी आत्म-साधक मनुष्य पर शासन केवल दिशा-सूचना भर को ही रहना चाहिए। श्राखिर, जो साधक है, उस पर विश्वास करना ही होगा।
जैन-संस्कृति में आत्म-स्वातन्त्र्य की भावना को वड़ा बल दिया गया है। जैन-संस्कृति का मूल स्वर शासन तथा नेता को, भले ही वह समाज का हो या संघ का, सदा सर्वदा चुनौती देता रहा है। वह सैद्धान्तिक रूप से शासन-निरपेक्ष स्वतन्त्र जीवन पद्धति को महत्त्व देता रहा है। इसका अभिप्राय यह नहीं है, कि जैन-संस्कृति स्वच्छन्दता का प्रसार करना चाहती है। साधक स्वतन्त्र तो रहे, परन्तु स्वच्छन्द न बन जाए। वस; इसीलिए संघ-नेता प्राचार्य के देख-रेख की आवश्यकता होती है।
संघ-नेता आचार्य का शासन कैसा होना चाहिए? यह प्रश्न भी एक गम्भीरतम प्रश्न है। कुछ विचारक कहते हैं, प्राचार्य को