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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
केवल पड़ोसियों पर कटु-कटाक्ष नहीं है । यह इतिहास का ज्वलन्त सत्य है, जिसको इतिहास का कोई भी सच्चा उत्तराधिकारी इन्कार नहीं कर सकता ।
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किन्तु एक आप हैं, आपकी आन, बान, शान, सब कुछ विलक्षण है । आपको न मठ अपने घेरे में ले सके, न लक्ष्मी के पाद की झङ्कार ही आपको चंचल कर सकी, न ऐश्वर्य की चमक-दमक ही आपकी प्रदीप्त आँखों को चुंधिया सकी। आप जिधर भी चले, भोगविलास की, ऐश्वर्य की, सुख-सुविधाओं की माया को कुचलते चले गए । आपको न प्रलोभन के माया - पुष्पों की भीनी महक मुग्ध कर सकी, और न भय तथा प्रांतक के काँटों की नुकीली नोंक ही पथ-भ्रष्ट कर सकी । आप तलवारों की छाया में भी मुस्कराते रहे, इठलाते रहे । आप शुली की नोंक पर भी आध्यात्मिक मस्ती के तराने गाते रहे । आप घानी में पिलते रहे, तन की खाल को खिंचवाते रहे, आग में जीवित जलते रहे, तन के तिल-तिल टुकड़े करवाते रहे, किन्तु आपकी शान्ति भङ्ग न हो सकी । ग्रापका अन्तर्बल दुर्बल न हो सका । आप कहीं पर भी किसी भी दशा में रहे - किन्तु लड़खड़ाए नहीं, गिरे नहीं, रुके नहीं । आपका त्याग वैराग्य आग में पड़ कर भी काला नहीं पड़ा, अपितु अधिकाधिक उज्ज्वल होता गया, निखरता गया । महान् श्रेणिक जैसे सम्राटों के विनम्न भोग - निमन्त्रण भी आपने ठुकराए । आपने अपनी गम्भीर वाणी में भू-मण्डल के बादशाहों को भी अनाथ कहा और वह आपका प्रतप्त प्रकथन आखिर सम्राटों ने सहर्ष स्वीकार भी किया । यह था ग्रापका अतीत, महान् अतीत, प्रकाशमान अतीत | इसी चिर- गौरव का आज भी यह शुभ परिणाम है कि आपके लिए, जैन श्रमणों के लिए, महाश्रमण महावीर के उत्तराधिकारियों के लिए, झोंपड़ी से लेकर राज-महलों तक के द्वार सर्वत्र अव्याहत रूप से खुले हैं । ग्राप ही हैं, जो गृह-द्वार के बाहर खड़े भिक्षा के लिए, अलख नहीं जगाते । आप सर्वत्र घर के अन्दर तक पहुँचते हैं । चौके की सीमा रेखा के पास तक पहुँचते हैं । आपकी भिक्षा, आपकी प्रामाणिकता के आधार पर, त्याग वृत्ति के आधार पर इस गए-गुजरे जमाने में भी सिंह-वृत्ति है, शृगाल-वृत्ति नहीं। आज आपके विरोधी भी, जैन-धर्म के विचार पक्ष पर विष-दग्ध टीका-टिप्पणी करने वाले भी