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सर्वतोमुखी व्यक्तित्व
आपको मालूम है, आप कहाँ वैठे हैं ? आप भगवान् महावीर के सिंहासन पर बैठे हैं। आपका उत्तरदायित्व अपने और जनता के लिए बहुत बड़ा है, आपको अपने दायित्व को पूरा करने के लिए सतत सजग रहना आवश्यक है। यदि दुर्दैव के किसी भी दुरभियोग से आप जरा भी विचलित हो गए, अपने दायित्व से इधर-उधर भटक गए, तो आपका सर्वनाश सुनिश्चित है। आपका ही नहीं, जैन-धर्म का, साधु-परम्परा का एवं जनता की असाधारण भक्ति-भावना का ध्वंस भी एक प्रकार से अपरिहार्य है । आपका गौरव, जैन-धर्म का गौरव है, और जैन-धर्म का गौरव-आपका गौरव है। आप जैन-संस्कृति के भव्य प्रासाद की नींव की ईट भी हैं, और उसके खुले आकाश में चमकते रहने वाले स्वर्ण-कलश भी।
आश्चर्य है- आप भूल जाते हैं, भटक जाते हैं, प्रलोभन के मायाजाल में फंस जाते हैं। कनक-कामिनी का कुचक्र आपको ले डूबे, यह कितनी लज्जा की बात है ? गौतम और सुधर्मा के वंशजअपना विवेक-विज्ञान सहसा गँवा बैठे-यह जैन-धर्म पर घातक चोट है, श्रमण-परम्परा पर कलंक का काला धब्बा है। जब मैं आपकी कुछ लोगों के मुंह से निन्दा सुनता हूँ, समाचार-पत्रों में आपके शिथिलाचार की बातें पढ़ता हूँ, तो हृदय टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। जब मैं आपके नैतिक जीवन के पतन की अफवाह उड़ती हुई पाता हूँ, तो आंखें लज्जा से झुक जाती हैं। क्या आज काम-विजेता स्थूल-भद्र के उत्तराधिकारियों के हाथों में अपनी ही बहनों एवं पुत्रियों की पवित्रता सुरक्षित नहीं है ? यदि यह बात है, तो फिर साधुता का दिखावा क्यों? यह दम्भ क्यों ? नहीं, आपको संभलना होगा। अपने को अपनी आत्मा और समाज के प्रति ईमानदार बनाना होगा । भगवान् महावीर के अनुशासन के प्रति अपने को वफादार बनाए विना साधु वेष में रहना महापाप है । और सब छोटी-मोटी भूलें क्षम्य हो सकती हैं, यथावसर नजरंदाज की जा सकती हैं, किन्तु यह नैतिकता शून्य आचरण कभी भी क्षम्य नहीं हो सकता। आप रूप, रुपया और रूपसी के मोहक मायाजाल में फंसते जाएँ, भोग-विलास की दल-दल में धंसते जाएँ और ऊपर से साधुता के मिथ्याभिमान से हंसते जाएं, यह नहीं हो सकता। समाज की अन्तरात्मा कितनी ही दुर्बल क्यों न