Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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भगवतीसरे स परम्पराबन्ध इति भावः । 'नेरइया णं भंते !' नैरयिकाणां भदन्त ! 'कइ. विहे बंधे पन्नत्ते' कतिविधः-कतिप्रकारको बन्धः प्रज्ञप्तः-कथित इति प्रश्नः, उत्तरमाह-एवं चेव' एवमेव एवम्-पूर्वोक्तपकारेण कथितं बन्धत्रयमेव, ‘एवं जाव वेमाणियाणं' एवं यावद् वैमानिकानाम् न केवलं नारकजीवानामेवायं त्रिपकारको बन्धः किन्तु वैमानिकान्तचतुर्विंशतिदण्डकानामेव भवतीति । 'णाणावरणिज्जस्स णं भंते ! कम्मरस' ज्ञानावरणीयस्य खलु भदन्त ! कर्मणः 'कइविहे बंधे पन्नत्ते' कतिविधो बन्धः प्रज्ञप्तः, इति प्रश्नः। उत्तरमाह'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! 'तिविहे बंधे पन्नत्ते' त्रिविधो बन्धः तात्पर्य यह है कि एक दो आदि समय के व्यवधान से जो बंध होता है वही परम्पराबंध है। अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं'नेरझ्या णं भंते! काविहे बंधे पण्णत्ते' हे भदन्त ! नारकियों के कितने प्रकार का बंध होता है ? इसके उत्तर में प्रभु ने कहा-'एवं चेव' हे गौतम ! नैरयिकों के पूर्वोक्त तीनों प्रकार का बंध होता है । 'एवं जाव वेमाणियाणं' तथा यही पूर्वोक्त तीनों प्रकार का बंध वैमानिकान्त २४ दंडक के जीवों को भी होता है ! अब ज्ञानावरणीयादि भिन्न २ कर्मप्रकृतियों के बंध होने के विषय में गौतम प्रभु से पूछते हैं-'णाणाधरणिजस्स णं भंते ! कम्मरस कविहे बंधे पण्णत्ते' हे भदन्त ! ज्ञानाघरणीय कर्म का जो बंध होता है-वह कितने प्रकार का होता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! तिविहे बंधे पण्णत्ते' हे गौतम ! કહેવાનું તાત્પર્ય એ છે કે એક બે વિગેરે સમયના વ્યવધાનથી જે બંધ थाय छे. ते ५२५२१५ .
वे गौतमस्वामी प्रभुने मे पूछे छे -'नेरइया णं भंते ! कइविहे बंधे पन्नत्ते' 3 भगवन् नैराथि वान या प्रश्न ५ थाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४९ छे है-'एवं चेव' ना२४ीय वान पडेसा
यो प्रारना ५ । थाय छे. 'एव' जाव वेमाणियाणं' तथा मा पूर्वरित પ્રકારના બધે વૈમાનિક સુધીના ૨૪ ચોવીસ દંડકના જીવોને પણ થાય छ. तम सम .
હવે જ્ઞાનાવરણીય આદિ જુદી જુદી કમ પ્રકૃતીના બંધ થવાના समयमा गीतमस्वामी प्रभुने पूछे छे है-'णाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कइविहे बंधे पण्णत्ते' समपन् ज्ञाना२णीय भनारेम थाय छ, तट
रन डाय छ ? म प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ -'गोयमा ! तिविहे
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪