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प्रास्ताविक
जैन ब्राह्मण को असि, मसि, कृषि और वाणिज्य से उपजीविका करनी चाहिए। (४०।१६७) उक्त वर्णन का सार यह है : १. वर्णव्यवस्था राजा ऋषभदेव ने अपनी राज्य-अवस्था में की थी। उन्होंने क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन ही वर्ण गुणकर्म के अनुसार आजीविका के आधार से स्थापित किये थे। यह उस समय की समाज-व्यवस्था या राज्य-व्यवस्था थी, धर्म व्यवस्था नहीं। जब उन्हें केवलज्ञान हो गया और वे भगवान् आदिनाथ हो गये तब उन्होंने इस समाज या राज्य व्यवस्था के सम्बन्ध में कोई उपदेश नहीं दिया । २. भरत चक्रवर्ती ने राज्य अवस्था में ही इस व्यवस्था में संशोधन किया। उन्होंने इन्हीं तीन वर्षों में
से अणुव्रतधारियों का सम्मान करने के विचार से चतुर्थ 'ब्राह्मण' वर्ण की स्थापना की। इसमें 'व्रतसंस्कार' से किसी को भी ब्राह्मण बनने का मार्ग खुला हुआ है। ३. दीक्षान्वय क्रियाओं में आयी हुई दीक्षा क्रिया मिथ्यात्वदूषित भव्य को सन्मार्ग ग्रहण करने के लिए है। इससे किसी भी अजैन को जैनधर्म की दीक्षा दी जाती है। उसकी शर्त एक ही है कि
वह भव्य हो और सन्मार्ग ग्रहण करना चाहता हो। ४. दीक्षान्वय क्रियाओं में आयी हुई वर्णलाभ क्रिया अजैन को जैन बनाने के बाद समान आजीविकावाले वर्ण में मिला देने के लिए है, इससे उसे नया वर्ण दिया जाता है। और उस वर्ण के समस्त
अधिकार उसे प्राप्त हो जाते हैं। ५. इन गर्भान्वय आदि क्रियाओं का उपदेश भी भरत चक्रवर्ती ने ही राज्य-अवस्था में दिया है जो
एक प्रकार की समाज-व्यवस्था को दृढ़ बनाने के लिए था।
अतः आदिपुराण में क्वचित् स्मृतियों से और ब्राह्मण-व्यवस्था से प्रभावित होने पर भी वह सांस्कृतिक तत्त्व मौजूद है, जो जैन संस्कृति का आधार है । वह है अहिंसा आदि व्रतों अर्थात् सदाचार की मुख्यता का। इसके कारण ही कोई भी व्यक्ति उच्च और श्रेष्ठ कहा जा सकता है । वे उस सैद्धान्तिक बात को कितने स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं
"मनुष्यजातिरेकैव जातिनामोबयोद्भवा । वृत्तिभेदाहिता भवात् चातुर्विष्यमिहारनुते ॥" (३८।४५)
जाति नामकर्म के उदय से एक ही मनुष्यजाति है। आजीविका के भेद से ही वह ब्राह्मण आदि चार भेदों को प्राप्त हो जाती है। आदिपुराण और स्मृतियाँ
आदिपुराण में ब्राह्मणों को दस विशेषाधिकार दिये गये हैं
१. अतिबालविद्या, २. कुलावधि, ३. वर्णोत्तमत्व, ४. पात्रता, ५. सृष्ट्यधिकारिता, ६. व्यवहारे. शिता, ७. अवध्यत्व, ८. अदण्ड्यत्व, ९. मानार्हता और १०. प्रजासम्बन्धान्तर । (४०।१७५-७६) इसमें ब्राह्मण की अवध्यता का प्रतिपादन इस प्रकार किया है
"ब्राह्मणो हि गुणोत्कर्षान्नान्यतो वधमर्हति ।" (४०।१९४)
"सर्वः प्राणी न हन्तव्यो बाह्मणस्तु विशेषतः।" (४०1१९५) भर्थात् गुणों का उत्कर्ष होने से ब्राह्मण का वध नहीं होना चाहिए । सभी प्राणी नहीं मारने चाहिए, खासकर ब्राह्मण तो मारा ही नहीं जाना चाहिए। उसकी अदण्ड्यता का कारण देते हुए लिखा है
"परिहार्य यथा देवगुरुद्रव्यं हिताधिभिः। ब्रह्मस्वं च तथाभूतं न दण्डाहस्ततो विजः ॥" (४०।२०१)