Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 17
________________ प्रास्ताविक T अन्वयदति ये चार प्रकार की दत्ति अर्थात् दान हैं। स्वाध्याय, उपवास आदि तप और व्रतधारण रूप संयम ये ब्राह्मणों के कुलधर्म हैं । भरत चक्रवर्ती ने तप और श्रुत को ही ब्राह्मणजाति का मुख्य संस्कार बताया। आगे गर्भ से उत्पन्न होने वाली उनकी सन्तान नाम से ब्राह्मण भले ही हो जाये पर जब तक उसमें तप और श्रुत नहीं होगा तब तक वह सच्चा ब्राह्मण नहीं कही जा सकती। इसके बाद चक्रवर्ती ने उन्हें गर्भान्वयक्रिया, दीक्षान्वयक्रिया और कर्त्रन्वय क्रियाओं का विस्तार से उपदेश दिया और बताया कि इन द्विजन्मा अर्थात् ब्राह्मणों को इन गर्भाधान आदि निर्वाणपर्यन्त गर्भान्वयक्रियाओं का अनुष्ठान करना चाहिए। इसके बाद अवतार आदि निर्वाणपर्यन्त ४८ दीक्षान्वय क्रियाएँ बतायीं। व्रतधारण करना दीक्षा कहलाती है और इस दीक्षा के लिए होने वाली क्रियाएँ दीक्षान्वय क्रियाएँ कहलाती हैं । दीक्षा लेने के लिए अर्थात् व्रतधारण करने के लिए जो जीव की तैयारी होती है वह दीक्षावतार' क्रिया है । कोई भी मिथ्यात्व से दूषित भव्य जब सन्मार्ग ग्रहण करना चाहता है अर्थात् कोई भी अर्जन जब जैन बनना चाहता है तब वह किसी योगीन्द्र या गृहस्थाचार्य के पास जाकर प्रार्थना करता है कि 'हे महाप्राज्ञ, मुझे निर्दोष धर्म का उपदेश दीजिए। मैंने सब अन्य मतीं को निःसार समझ लिया है । वेदवाक्य भी सदाचारपोषक नहीं है ।' तब गृहस्थाचार्य उस अजैन भव्य को आप्त श्रुत आदि का स्वरूप समझाता है और बताता है कि वेद-पुराण, स्मृति-चरित्र, क्रिया-मन्त्र-देवता, लिंग और आहारादि शुद्धियाँ जहाँ वास्तविक और तात्विक दृष्टि से बतायी हैं वही सच्चा धर्म है । द्वादशांगश्रुत ही सच्चा वेद है, यज्ञादि हिंसा का पोषण करनेवाले वाक्य वेद नहीं हो सकते । इसी तरह अहिंसा का विधान करनेवाले ही पुराण और धर्मशास्त्र कहे जा सकते हैं, जिनमें वध, हिंसा का उपदेश है वे सब धूतों के वचन हैं। अहिंसापूर्वक षट्कर्म ही आर्यवृत्त है और अन्य मतावलम्बियों के द्वारा बताया गया चातुराश्रमधर्म असन्मार्ग है । गर्भाधानादि निर्वाणान्त क्रियाएँ ही सच्ची क्रियाएँ हैं, गर्भादि श्मशानान्त क्रियाएँ सच्ची नहीं हैं। जो गर्भाधानादि निर्वाणान्त सम्यक् क्रियाओं में उपयुक्त होते हैं वे ही सच्चे मन्त्र हैं, हिंसादि पापकर्मों के लिए बोले जाने वाले मन्त्र दुमंन्त्र हैं । विश्वेश्वर आदि देवता ही शान्ति के कारण हैं, अन्य मांसवृत्ति वाले क्रूर देवता हेय हैं। दिगम्बर लिंग ही मोक्ष का साधन हो सकता है, मृगचर्म आदि धारण करना कुलिंग है । मांसरहित भोजन ही आहारशुद्धि है। अहिंसा ही एक मात्र शुद्धिका आधार हो सकता है, जहाँ हिंसा है वहाँ शुद्धि कैसी ? इस तरह गुरु से सन्मार्ग को सुनकर वह भव्य जब सन्मार्ग को धारण करने के लिए तत्पर होता है तब दीक्षावतार क्रिया होती है । इसके बाद अहिंसादि व्रतों का धारण करना वृत्तलाभ क्रिया है । तदनन्तर उपवासादिपूर्वक जिन-पूजा विधि से उसे जिनालय में पंचनमस्कार मन्त्र का उपदेश देना स्थानलाभ कहलाता है । स्थानलाभ करने के बाद वह घर जाकर अपने घर में स्थापित मिथ्या देवताओं का विसर्जन करता है और शान्त देवताओं की पूजा करने का संकल्प करता है । यह गणग्रह क्रिया है। इसके बाद पूजाराध्य, पुण्ययश, दृढव्रत, उपयोगिता आदि क्रियाओं के बाद उपनीति क्रिया होती है जिसमें देवगुरु की साक्षीपूर्वक चारित्र और समय के परिपालन की प्रतिज्ञा की जाती है और व्रतचिह्न के रूप में उपवीत धारण किया जाता है। इसकी आजीविका के साधन वही 'आर्यं षट्कर्म' रहते हैं । इसके बाद वह अपनी पूर्वपत्नी को भी जैनसंस्कार से दीक्षित करके उसके साथ पुनः विवाह संस्कार करता है। इसके बाद वर्णलाभ क्रिया होती है। इस क्रिया में समान आजीविका वाले अन्य श्रावकों से वह निवेदन करता है कि मैंने सद्धर्म धारण किया, व्रत पाले, पत्नी को जैनविधि से संस्कृत कर उससे पुनः विवाह किया । मैंने गुरु की कृपा से अयोनिसम्भव जन्म' अर्थात् माता-पिता के संयोग के बिना ही यह चारित्रमूलक जन्म प्राप्त किया है । अब आप सब हमारे ऊपर अनुग्रह करें। तब वे श्रावक उसे अपने वर्ग में मिला लेते हैं और संकल्प करते हैं कि तुम जैसा द्विज - ब्राह्मण हमें कहाँ मिलेगा ? तुम जैसे शुद्ध द्विज के न मिलने से हम सब १. " तत्रावतारसंज्ञा स्यादाद्या दीक्षान्वयक्रिया । मिथ्यात्वदूषिते भव्ये सन्मार्गग्रहणोन्मुखे || ३६ |७|

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