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प्रास्ताविक
संस्कार को प्राप्त होकर वह संस्कृत कही जाती है।"
सरस्वतीकंठाभरण की आजकृत व्याख्या में आजड ने भी ये ही भाव व्यक्त किये हैं।
सद्ध बौद्ध दार्शनिक आ० शान्तरक्षित ने अपनी वादन्याय टीका (प०१०३) में लोकभाषा के अर्थवाचकत्व का सयुक्तिक समर्थन किया है । आचार्य प्रभाचन्द्र ने न्यायकुमुदचन्द्र ग्रन्थ में बहुत विस्तार से यह सिद्ध किया है कि प्राकृत स्वाभाविक जनबोली है। उसी का व्याकरण से संस्कार होकर 'संस्कृत' रूप बना है। उन्होंने 'प्रकृतेर्भवं प्राकृतम्' पक्ष का खंडन बड़ी प्रखरता से किया है। वे लिखते हैं कि "वह 'प्रकृति' क्या है जिससे उत्पन्न को प्राकृत कहा जाता है । स्वभाव,धातुगण या संस्कृत शब्द? स्वभाव पक्ष में तो प्राकृत ही स्वाभाविक ठहरती है। धातुगण से संस्कृत शब्दों की तरह प्राकृत शब्द भी बनते हैं । संस्कृत शब्दों को प्रकृति कहना नितान्त अनुचित है, क्योंकि वह संस्कार है, विकार है। मौजूदा वस्तु में किसी विशेषता का लाना संस्कार कहलाता है, वह तो विकाररूप है, अतः उसे प्रकृति कहना अनुचित है। संस्कृत आदिमान् है और प्राकृत अनादि है।"
अतः 'प्राकृत भाषा संस्कृत से निकली है' यह कल्पना ही निर्मूल है। 'संस्कृत' नाम स्वयं अपनी संस्कारिता और पीछेपन को सूचित करता है। प्राकृतव्याकरण अवश्य संस्कृत व्याकरण के बाद बना है। क्योंकि पहले प्राकृत बोली को व्याकरण के नियमों की आवश्यकता ही नहीं थी। संस्कृतयुग के बाद उसके व्याकरण की आवश्यकता पड़ी। इसीलिए प्राकृत व्याकरण के रचयिताओ ने 'प्रकृतिः संस्कृतम्' लिखा, क्योंकि उन्होंने संस्कृत शब्दों को प्रकृति मानकर फिर प्रत्यय लगाकर प्राकृत शब्द बनाये हैं । पुराणों का उद्गम
तीर्थंकर आदि के जीवनों के कुछ मुख्य तथ्यों का संग्रह स्थानांगसूत्र में मिलता है, जिसके आधार से आ० हेमचन्द्र आदि ने त्रिषष्टिमहापुराण आदि की रचनाएँ कीं। दिगम्बर परम्परा में तीर्थंकर आदि के चरित्र के तथ्यों का प्राचीन संकलन हमें प्राकृत भाषा के तिलोयपण्णत्ति ग्रन्थ में मिलता है। इसके चौथे महाधिकार में, तीर्थकर किस स्वर्ग से चल कर आये, नगरी और माता-पिता का नाम, जन्मतिथि, नक्षत्र, वंश, तीर्थंकरों का अन्तराल, आयु, कुमारकाल, शरीर की ऊँचाई, वर्ण, राज्यकाल, वैराग्य का निमित्त, चिह्न, दीक्षातिथि, नक्षत्र, दीक्षा वन, दीक्षा वृक्ष, षष्ठ आदि प्राथमिक तप, दीक्षा परिवार, पारणा, कुमारकाल में दीक्षा ली या राज्यकाल में, दान में पंचाश्चर्य होना, छद्मस्थ काल, केवलज्ञान की तिथि, नक्षत्र स्थान, केवलज्ञान की उत्पत्ति का अन्तरकाल, केवलज्ञान होने पर अन्तरीक्ष हो जाना, केवलज्ञान के समय इन्द्रादि के कार्य, समवसरण का सांगोपांग वर्णन, किस तीर्थकर का समवसरण कितना बड़ा था, समवसरण में कौन नहीं जाते,
१. "प्राकृतेति-सकलजगज्जन्तूनां व्याकरणादेरनाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः, तत्र भवं संव वा प्राकृतम्। 'आरिसवयणे सिदं देवाणं अद्धमग्गहा वाणी' इत्यादिवचनाद्वा प्राक् पूर्व कृतं प्राकृतं बाल-महिलाविसुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनमुच्यते । मेघनिर्मुषतजलमिवैकस्वरूप तदेव च देशविशेषात् संस्कारकरणाच्च समासादितविशेषं सत् संस्कृताद्युत्तरविभेदानाप्नोति । अतएव शास्त्रकृता प्राकृतमादौ निर्दिष्टं तदन संस्कृतादीनि पाणिन्यादिव्याकरणोदितशम्बलक्षणेन संस्करणात संस्कृतमुच्यते।"
-काव्यालंकार टी० २।१२ २. "तत्र सकलबालगोपालाङ्गनाहृदयसंवादी निखिलजगज्जन्तूनां शब्दशास्त्राकृतविशेषसंस्कारः सहजो
वचनव्यापारः समस्तेतरभाषाविशेषाणां मूलकारणत्वात् प्रकृतिरिव प्रकृतिः । तत्र भवा सैव वा . प्राकृता। सा पुनमेंघनिर्मुक्तजलपरम्परेव एकरूपापि तत्तदेशादिविशेषात् संस्कारकरणाच्च भेवान्तरानाप्नोति । अत इयमेव शूरसेनवास्तव्यजनता किंचिदापितविशेषलक्षणा भाषा शौरसेनी
(भारतीय विद्या निबन्धसंग्रह, पृ० २३२) ३. देखो, न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० ७६४
भव्यते।"