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मारिपुराम
अतिशय, केवलज्ञान के वृक्ष, आठ प्रातिहार्य, यक्ष, यक्षी , केवलकाल, गणधरसंख्या, ऋषिसंख्या, पूर्वधर, शिक्षक, अवधिज्ञानी, केवलज्ञानी, विक्रियाऋद्धिधारी, वादी आदि की संख्या, आयिकाओं की संख्या, प्रमुख आयिकाओं के नाम, श्रावकसंख्या, श्राविकासंख्या, निर्वाण की तिथि, नक्षत्र, स्थान का नाम, अकेले निर्वाण गये या मुनियों के साथ, कितने दिन पहले योग निरोध किया, किस आसन से मोक्ष पाया, अनुबद्ध केवली, उन शिष्यों की संख्या जो अनुत्तर विमान गये, मोक्षगामी मुनियों की संख्या, स्वर्गगामी शिष्यों की संख्या, तीर्थंकरों के मोक्ष का अन्तर, तीर्थप्रवर्तन कार्य आदि प्रमुख तथ्यों का विधिवत् संग्रह है। इसी तरह चक्रवतियों के मातापिता, नगर, शरीर का रंग आदि के साथ-ही-साथ दिग्विजय यात्रा के मार्ग, नगर, नदियों आदि का सविस्तार वर्णन मिलता है। नारायण, ६ प्रतिनारायण, बलभद्र तथा ११ रुद्रों के जीवन के प्रमुख तथ्य भी इसी में संगृहीत हैं। इन्हीं के आधार से विभिन्न पुराणकारों ने अपनी लेखनी के बलपर छोटे-बड़े अनेक पुराणों की रचना की है। महापुराण
प्रस्तुत ग्रन्थ महापुराण जैन पुराणशास्त्रों में मुकुटमणिरूप है । इसका दूसरा नाम 'त्रिषष्टिलक्षण महापुराणसंग्रह' भी है । इसमें २४ तीर्थंकर, १२ चक्रवर्ती, ६ नारायण, ६ प्रतिनारायण और बलभद्र इन तिरसठ शलाकापुरुषों का जीवन संग्रहीत है।
इसकी काव्यछटा, अलंकारगुम्फन, प्रसाद, ओज और माधुर्य का अपूर्व सुमेल, शब्दचातुरी और बन्ध अपने ढंग के अनोखे हैं। भारतीय साहित्य के कोषागार में जो इने-गिने महान् ग्रन्थरत्न हैं उनमें स्वामी जिनसेन की यह कृति अपना विशिष्ट स्थान रखती है । काव्य की दृष्टि से इसका जो अद्वितीय स्थान है वह तो है ही, साथ ही इसका सांस्कृतिक उत्थान-पतन और आदान-प्रदान के इतिहास में विशिष्ट उपयोग है। ग्रन्थ की प्रकृति
स्वामी जिनसेन के युग में दक्षिण देश में ब्राह्मणधर्म और जैन धर्म का जो भीषण संघर्ष रहा है वह इतिहास सिद्ध है । आ० जिनसेन ने भ० महावीर की उदारतम संस्कृति को न भूलते हुए ब्राह्मण-क्रियाकाण्ड के जैनीकरण का सामयिक प्रयास किया था।
यह तो मानी हुई बात है कि कोई भी ग्रन्थकार अपने युग के वातावरण से अप्रभावित नहीं रह सकता। उसे जो विचारधारा परम्परा से मिली है उसका प्रतिबिम्ब उसके रचित साहित्य में आये बिना नहीं रह सकता । साहित्य युग का प्रतिबिम्ब है । प्रस्तुत महापुराण भी इसका अपवाद नहीं है । मनुस्मृति में गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त की जिन गर्भाधानादि क्रियाओं का वर्णन मिलता है, आदिपुराण में करीब-करीब उन्हीं क्रियाओं का जैनसंस्करण हुआ है । विशेषता यह है कि मनुस्मृति में जहाँ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के लिए जुदे-जुदे रंग के कपड़े, छोटे-बड़े दण्ड, भिक्षा के समय भवति भिक्षां देहि, भिक्षां भवति देहि, देहि भिक्षां भवति, आदि विषम प्रकार बताये हैं वहाँ आदिपुराण में यह विषमता नहीं है । हाँ, एक जगह राजपुत्रों के द्वारा सर्वसामान्य स्थानों से भिक्षा न मंगवाकर अपने अन्तःपुर से ही भिक्षा मांगने की बात कही गयी है । आदिपुराणकार ने ब्राह्मणवर्ण का जैनीकरण किया है। उन्होंने ब्राह्मणत्व का आधार 'व्रतसंस्कार' माना है। जिस व्यक्ति ने भी अहिंसा आदि व्रतों को धारण कर लिया वह ब्राह्मण हुआ। उसे श्रावक की प्रतिमाओं के अनुसार 'व्रतचिह्न के रूप में उतने यज्ञोपवीत धारण करना आवश्यक है। ब्राह्मण वर्ण की रचना की जो अंकुरवाली घटना इसमें आयी है, उससे स्पष्ट हो जाता है कि इसका आधार केवल 'व्रतसंस्कार' था। महाराज ऋषभदेव के द्वारा स्थापित क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों में जो व्रतधारी थे और जिनने जीवरक्षा की भावना से हरे अंकुरों को कुचलते हुए जाना अनुचित समझा उन्हें भरत चक्रवती ने 'ब्राह्मण' वर्ण का बनाया तथा उन्हें दान आदि देकर सम्मानित किया। इज्या, वार्ता, दत्ति, स्वाध्याय, संयम और तप इन छह बातों को उनका कुलधर्म बताया। जिनपूजा को इज्या कहते हैं। विशुद्ध वृत्ति से खेती आदि करना वार्ता है। दयादत्ति, पात्रदत्ति, समदत्ति और