Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 14
________________ । आदिपुराण ये श्लोक स्पष्टत: किसी अन्य ग्रन्थ से टिप्पणी आदि में लिये गये होंगे, क्योंकि जैन परम्परा से इनका कोई मेल नहीं है। मराठी टीका सहित मुद्रित महापुराण में यह दोनों श्लोक मराठी अनुवाद के साथ लिखे हुए हैं। इसी तरह सम्भव है कि इसके पहले का शूद्रों के स्पृश्य और अस्पृश्य भेद बताने वाला यह श्लोक भी किसी समय प्रतियों में शामिल हो गया हो "कारवोऽपि मता द्वधा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः । तत्रास्पृश्याः प्रजाबाह्याः स्पृश्याः स्युः कर्तकादयः ॥१८६॥" क्योंकि इस प्रकार के विचारों का जनसंस्कृति से कोई सम्बन्ध नहीं है। प्रस्तावना ग्रन्थ के विद्वान् सम्पादक ने प्रस्तावना में ग्रन्थ और ग्रन्थकार के सम्बन्ध में उपलब्ध सामग्री के अनुसार पर्याप्त ऊहापोह किया है। ग्रन्थ के आन्तर रहस्य का आलोकन करके उन्होंने जो वर्णव्यवस्था और सज्जातित्व आदि के सम्बन्ध में विचार प्रस्तुत किये हैं वे सर्वथा मौलिक और उनके अध्ययन के सहज परिणाम हैं । स्मृतियों आदि की तुलना करके उन्होंने यह सिद्ध किया है कि जैन संस्कृति वर्णव्यवस्था 'जन्मना' नहीं मानती; किन्तु गुण कर्म के अनुसार मानती है। प्रसंगतः उन्होंने संस्कृत और प्राकृत भाषा की भी चर्चा की है। उस सम्बन्ध में ये विचार भी ज्ञातव्य हैं : संस्कृत-प्राकृत प्राकृत भाषा जनता की बोलचाल की भाषा थी और संस्कृत भाषा व्याकरण के नियमों से बंधी हुई, संस्कारित, सम्हाली हुई, वर्ग विशेष की भाषा । जैन तीर्थंकरों के उपदेश जिस 'अर्धमागधी भाषा में होते थे वह मगध देश की ही जनबोली थी। उसमें' आधे शब्द मगधदेश की बोली के थे और आधे शब्द सर्व देशों की बोलियों के। तीर्थंकरों को जन-जन तक अपने धर्म-सन्देश पहुँचाने थे अतः उन्होंने जनबोली को ही अपने उपदेश का माध्यम बनाया था। जब संस्कृत व्याकरण की तरह 'प्राकृत व्याकरण' भी बनने की आवश्यकता हुई, तब स्वभावतः संस्कृत व्याकरण के प्रकृति प्रत्यय के अनुसार ही उसकी रचना होनी थी। इसीलिए प्रायः प्राकृत व्याकरणों में 'प्रकृतिः संस्कृतम्, तत्र भवं प्राकृतम्' अर्थात् संस्कृत शब्द प्रकृति है और उससे निष्पन्न हुआ शब्द प्राकृत यह उल्लेख मिलता है । संस्कृत के 'घट' शब्द को ही प्रकृति मानकर प्राकृत व्याकरण के सूत्रों के अनुसार प्राकृत 'घड' शब्द बनाया जाता है । इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि पहले संस्कृत थी फिर वही अपभ्रष्ट होकर त बनी। वस्तुतः जनबोली प्राकृत-मागधी ही रही है और संस्कृत व्याकरण के नियमों के अनुसार भमुशासनबद्ध होकर 'संस्कृत' रूप को प्राप्त हुई है, जैसा कि आजड और नमिसाधु के व्याख्यानों से स्पष्ट है। नमिसाधु ने रुद्रटकृत काव्यालंकार की व्याख्या में बहुत स्पष्ट और सयुक्तिक लिखा है कि-"प्राकृत सकल प्राणियों की सहज वचन प्रणाली है। वह प्रकृति है और उससे होने वाली या वही भाषा प्राकृत है। इसमें व्याकरण आदि का अनुशासन और संस्कार नहीं रहता। आर्ष वचनों में अर्धमागधी वाणी होती है। जो प्राक पहले की गयी वह प्राकृत प्राकृत है। बालक, स्त्रियों आदि भी जिसे सहज ही समझ सके जिससे अन्य समस्त भाषाएँ निकली हैं वह है प्राकृत भाषा। यह मेघ से बरसे हुए जल की तरह एक रूप होकर भी विभिन्न देशों में और भिन्न संस्कारों के कारण संस्कृत आदि उत्तर भेदों को प्राप्त होती है। इसीलिए शास्त्रकार ने पहले प्राकृत और बाद में संस्कृत आदि का वर्णन किया है । पाणिनि व्याकरण आदि ग्याकरणों से १. "अर्ध भगवद्भाषाया मगधदेशभाषात्मकम्, अषं च सर्वदेशभाषात्मकम्" क्रियाकलापढीका ।

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