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प्रास्ताविक
[प्रथम संस्करण से ]
भारतीय ज्ञानपीठ का उद्देश्य दो भागों में विभाजित है : १. ज्ञान की विलुप्त अनुपलब्ध और अप्रकाशित सामग्री का अनुसन्धान और प्रकाशन, २. लोकहितकारी मौलिक साहित्य का निर्माण । इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए क्रमशः ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला और ज्ञानपीठ लोकोदय ग्रन्थमाला प्रकाशित हो रही हैं। ज्ञानपीठ मूर्तिदेवी ग्रन्थमाला भद्रदृष्टि साहू शान्तिप्रसादजी की स्व० माता मूर्तिदेवी के स्मरणार्थ उनकी अन्तिम अभिलाषा की पूर्तिनिमित्त स्थापित की गयी है और इसके संस्कृत, प्राकृत, पाली आदि विभागों द्वारा अब तक नौ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक ग्रन्थों का सम्पादन हो रहा है, अनेकों मुद्रणाधीन हैं ।"
प्रस्तुत संस्करण की विशेषता
यद्यपि आदिपुराण का एक संस्करण इतः पूर्व पं० लालारामजी शास्त्री के अनुवाद के साथ प्रकाशित हो चुका है पर इस संस्करण की कई विशेषताओं में प्रमुख विशेषता है बारह प्राचीन प्रतियों के आधार से पाठ-शोधन की । पुराने ग्रन्थों में अनेक श्लोक टिप्पणी के तौर पर लिखे हुए भी कुछ प्रतियों में मूल में शामिल हो जाते हैं और इससे ग्रन्थकारों के समय-निर्णय आदि में अनेक भ्रान्तियाँ आ जाती हैं। उदाहरणार्थ
"दुःखं संसारिणः स्कन्धाः ते च पञ्च प्रकीर्तिताः । विज्ञानं वेदना संज्ञा संस्कारो रूपमेव च ॥४२॥ पञ्चेन्द्रियाणि शब्दाद्या विषयाः पञ्च मानसम् । धर्मायतनमेतानि द्वादशायतनानि च ॥ ४३ ॥ समुदेति यतो लोके रागादीनां गणोऽलिलः । स चात्मात्मीयभावाख्यः समुदायसमाहितः ॥ ४४ ॥ क्षणिकाः सर्वसंस्कारा इत्येवं वासना मता । सन्मार्ग इह विज्ञेयो निरोधो मोक्ष उच्यते ॥ ४५ ॥ | "
ये श्लोक पाँचवें पर्व के हैं। ये दिल्ली की प्रति में पाये जाते हैं । मुद्रित प्रति में 'दुःखं संसारिणः स्कन्धाः ते च पञ्च प्रकीर्तिता:' इस आधे श्लोक को छोड़कर शेष ३|| श्लोक ४२ से ४५ नम्बर पर मुद्रित हैं। बाकी त०, ब०, प०, म०, स० अ०, ट० आदि सभी ताडपत्रीय और कागज की प्रतियों में ये श्लोक नहीं पाये जाते ।
मैंने न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भाग की प्रस्तावना (पृष्ठ ३८) में हरिभद्रसूरि और प्रभाचन्द्र की तुलना करते हुए यह लिखा था कि- "ये चार श्लोक षड्दर्शनसमुच्चय के बौद्धदर्शन में मौजूद हैं। इसी आनुपूर्वी से ये ही श्लोक किंचित् शब्दभेद के साथ जिनसेन के आदिपुराण ( पर्व ५ श्लो० ४२-४५ ) में भी विद्यमान हैं। रचना से तो ज्ञात होता है कि ये श्लोक किसी बौद्धाचार्य ने बनाये होंगे और उसी बौद्ध ग्रन्थ से षड्दर्शनसमुच्चय और आदिपुराण में पहुँचे होंगे। हरिभद्र और जिनसेन प्रायः समकालीन हैं, अतः यदि ये श्लोक हरिभद्र के होकर आदिपुराण में आये हैं तो इसे उस समय के असाम्प्रदायिक भाव की महत्त्वपूर्ण घटना समझनी चाहिए " परन्तु इस सुसंपादित संस्करण से तो वह आधार ही समाप्त हो जाता है और स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि ये श्लोक किसी प्रतिलेखक ने टिप्पणी के तौर पर हाशिया में लिखे होंगे और वे कालक्रम से मूल प्रति में शामिल हो गये । इस दृष्टि से प्राचीन ताडपत्रीय प्रतियों से प्रत्येक ग्रन्थ का मिलान करना नितान्त आवश्यक सिद्ध हो जाता है। इसी तरह पर्व १६ श्लोक १८६ से आगे निम्नलिखित श्लोक द० प्रति में और लिखे मिलते हैंसालिको मालिकश्चैव कुम्भकारस्तिलन्तुदः । नापितश्चेति पश्चामी भवन्ति स्पृश्यकारकाः ।। राकस्तक्षकश्चैबायस्कारो लोहकारकः । स्वर्णकारश्च पञ्चैते भवन्त्यस्पृश्यकारकाः ॥"
१. प्रस्तुत ग्रन्थ के इस संस्करण के प्रकाशन के समय तक इस ग्रन्थमाला में लगभग सवा सौ ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं - प्रकाशक