Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ प्रधान सम्पादकीय ३ से मेल खाती है, और दूसरी एक मुहर पर की ध्यानस्थ आसीन मूर्ति जिसके मस्तक पर शैव त्रिशूल व जैन त्रिरत्न के समान त्रिगात्मक मुकुट है व आस-पास कुछ पशुओं की आकृतियाँ हैं। जब हम एक ओर आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ के नग्नत्व, जटा, कैलास पर तप, वृषभ चिह्न, जीवरक्षा आदि लक्षणों पर और दूसरी मोर महादेव या पशुपतिनाथ की इन्हीं विशेषताओं पर दृष्टि डालते हैं तो ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोनों देवताओं का विकास उक्त सिन्धुघाटी के प्रतीकों पर से हुआ हो तो आश्चर्य नहीं । इसकी ऋग्वेद के अनेक वाक्यों से भी पुष्टि होती है। 'त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महादेवो मर्त्यानाविवेश' (४१५८१३), 'अर्हन् इदं दयसे विश्वमभ्वं न वा ओजीयो रुद्र त्वदस्ति' (२।३८ । १०) आदि ऋग्वचनों में वृषभ और महादेव, अर्हन् और रुद्र तथा विश्वभूत दयालुता का एक ही देवता के सम्बोधन में प्रयोग ध्यान देने योग्य है । इस प्रकार जहाँ तक पूर्वकाल में इतिहास की दृष्टि जाती है वहाँ तक बराबर श्रमण और वैदिक परम्परा के स्रोत दृष्टिगोचर होते हैं । उस प्राक्तन काल से लेकर ईसवी पूर्व ५२७ में अन्तिम तीर्थंकर महावीर के निर्वाण तक जो तीर्थंकरों, चक्रर्तियों, बलदेवों, नारायणों व प्रतिनारायणों का विवरण जैन पुराणों में पाया जाता है उसका भी वैदिक पुराण - परम्परा से घनिष्ठ सम्बन्ध है । तीर्थंकरों में ऋषभ के अतिरिक्त नमि व नेमि, चक्रवर्तियों में भरत और सगर, बलदेवों में राम और बलदेव, नारायणों में लक्ष्मण और कृष्ण तथा प्रतिनारायणों में रावण व कंस एवं जरासन्ध का वर्णन दोनों परम्पराओं की तुलनात्मक रीति से अध्ययन करने योग्य है । इसमें जो साम्य है वह भारतीय एकत्व की धारा का बोधक है, और जो वैषम्य है वह उक्त दोनों उपधाराओं के अपनेअपने वैशिष्टय का द्योतक होते हुए भारतीय संस्कृति की समृद्धि का बोध कराता है । जो इस मर्म को न समझकर या जान-बूझकर दोनों में विरोध की भावना से संघर्ष उत्पन्न करते हैं, वे यथार्थतः राष्ट्र के शत्रु हैं । इस दृष्टि से प्रस्तुत महापुराण एक बड़ी महत्त्वपूर्ण रचना है। यद्यपि इसका निर्माण आठवीं-नवीं शती में हुआ है, तथापि इसमें प्राचीनतम समस्त पौराणिक परम्पराओं का समावेश मिलता है । अन्तिम तीर्थंकर महावीर के जीवन चरित्र के साथ-साथ उनके समकालीन वैशाली के राजा चेटक, मगधनरेश श्रेणिक (बिम्बिसार ) आदि पुरुषों के उल्लेख ( पर्व ७५ ) ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष उपयोगी हैं। महावीर निर्वाण से एक हजार वर्ष पश्चात् हुए चतुर्भुज कल्कि का यहाँ जो परिचय दिया गया है उस पर से का० बा० पाठक ने उसे हूण नरेश मिहिरकुल से अभिन्न ठहराने का प्रयत्न किया है (भंडारकर कमेमोरेटिव एसेज, पूना, १९१७)। पुराणों की यह भी एक विशेषता है कि वे अपने काल के ज्ञान कोश हुआ करते हैं और उनमें इतिहास के अतिरिक्त सामाजिक व धार्मिक बातों का विशेष रूप से समावेश पाया जाता है । प्रस्तुत महापुराण इस दृष्टि से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है । जिस प्रकार वैदिक परम्परा के पुराणों तथा धर्मशास्त्रों में मनुष्य समाज का वर्णों में वर्गीकरण और उनके पृथक्-पृथक् विशेष आचारों का वर्णन एवं प्रत्येक व्यक्ति के गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त धार्मिक संस्कारों एवं ब्रह्मचर्यादि आश्रमों में जीवन के उत्थान व विकास का क्रम दिखलाया गया है, उसी प्रकार प्रस्तुत महापुराण में भी पाया जाता है । कुछ लोगों का मत है कि पुराण का यह अंश पूर्वोक्त परम्परा से प्रभावित है । यदि ऐसा हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि इतिहासा - तीत काल से वैदिक व श्रमण परम्पराएँ क्षेत्र और काल की दृष्टि से साथ-साथ विकसित होती चली आयी हैं, और दोनों परम्पराओं में लोक-जीवन व सामाजिक व्यवस्था की एक-सी समस्याएं रही हैं। दोनों परम्पराओं के अपने-अपने वैशिष्ट्य का प्रभाव परस्पर हुआ है, यह स्पष्ट दिखाई देता है । कहाँ है अब वह वैदिक परम्परा का यज्ञात्मक क्रियाकाण्ड व वर्णाश्रम की कठोर व्यवस्थाएँ ? क्या श्रमण परम्परा का अहिंसा सिद्धान्त व जीवमात्र में समान रूप से परमात्मत्व की दृष्टि से एकरूपता की मान्यता उक्त परिवर्तन में व कारणीभूत नहीं हुई ? धर्म के सैद्धान्तिक पक्ष में जैन धर्म ने कभी कोई ढिलाई समझौते की नीति को नहीं * अपनाया । किन्तु सामाजिक आचरण पर जैन धर्म ने कभी कोई कठोर नियंत्रण नहीं लगाया, सिवाय इसके

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