Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 10
________________ २ मादिपुराण जो संग्रह द्वादशांग आगम में किया गया था उसके बारहवें अंग दृष्टिवाद के अवान्तर भेद अनुयोग या प्रथमानयोग का विषय तीर्थंकर आदि महापुरुषों के चरित्र व अन्य आख्यान थे। षटखण्डागम की धवलाटीका के अनुसार यहाँ 'बारह' प्रकार का 'पुराण' वर्णन किया गया था, जिसमें अरहंतों, चक्रवतियों, विद्याधरों, वासूदेवों, चारणों, प्रज्ञाश्रमणों, कौरवों, इक्ष्वाकुओं, काशिकों और वादियों के वंशों का एवं हरिवंश व नाथवंश का वर्णन सम्मिलित था। यद्यपि यह मूल अनुयोग रचना अब अप्राप्य है, तथापि पांचवीं शती में जो वल्लभीवाचना के समय देवधिगणी के नायकत्व में अंगों का संकलन किया गया उनमें बहुत कुछ इस अनुयोग के खण्ड समाविष्ट पाये जाते हैं । विशेषतः चतुर्य आगम समवायांग के २७५ सूत्रों में से अन्तिम ३० सूत्रों में कुलकरों, तीर्थकरों, चक्रवर्तियों तथा बलदेवों, वासुदेवों और प्रतिवासुदेवों का उनके माता-पिता, जन्मस्थान, दीक्षास्थान आदि का क्रम से परिचय कराया गया है। इन्हीं प्रेसठशलाकापुरुषों की और भी सुविस्तृत नामावलियां यतिवृषभाचार्यकृत "तिलोयपण्णत्ति' के चतुर्थ अधिकार में पायी जाती हैं। इसके अतिरिक्त यहाँ ११ रुद्र, १ नारद और २४ कामदेवों का भी विवरण दिया गया है। उपर्युक्त समवायांग तथा तिलोयपण्णत्ति में प्राप्य नामावलियों के आधार से विशेष कथानक गुरु-शिष्यपरम्परा से चलते रहे होंगे और उन्हीं पर से पश्चात्कालीन जैनपुराण रचे गये, जैसा कि पउमचरिय के कर्ता विमलसूरि ने स्पष्ट कहा है कि "जो पद्मचरित पहले नामावली निबद्ध था और आचार्य-परम्परा से चलता आया, उस सबको ही मैं यहां अनुक्रम से कहता हूँ" (१८)। प्रश्न उठता है कि जो वृत्तान्त पुराणों में पाया जाता है उसका आदिमकाल क्या है ? पुराणों में जो पल्यों और सागरों, उत्सपिणी-अवसर्पिणी एवं सुखमा-दुखमा कालचक्रों तथा संख्यात व असंख्यात वर्षों का उल्लेख मिलता है उससे आधुनिक वैज्ञानिक व ऐतिहासिक तथ्यों का समाधान नहीं होता। यह बात जैन पुराणों के सम्बन्ध में ही हो सो बात नहीं, वैदिक परम्परा के सतयुग-कलयुग में भी वही बात पायी जाती है। तथापि आधुनिक विद्वानों ने भाषा, विषय आदि के आधार पर भारतीय साहित्य का जो कालक्रम निश्चित किया है उसमें सबसे प्राचीन ऋग्वेद ठहरता है। उससे पूर्व की कोई साहित्यिक रचना प्राप्त नहीं है। जैनपुराण की दृष्टि से ऋग्वेद का वह सूक्त (१०११३६) बहुत महत्त्वपूर्ण है जिसमें वातरशना मुनियों की स्तुति की गयी है। जान पड़ता है ये मुनि नग्न रहते थे, जटा भी धारण करते थे, स्नान न करने से मलिनशरीर व मौनवृत्ति से रहते थे, और इन गुणों से वैदिक ऋषियों से सर्वथा भिन्न थे। इन मुनियों में केशी प्रधान थे। एक अन्य ऋचा (१०११०२६) में केशी और वृषभ विशेषण-विशेष्य रूप में प्रयुक्त हुए हैं जिससे सन्देह नहीं रहता कि वातरशना मुनियों के नायक केशी वृषभ थे। यदि इस बात में कुछ सन्देह रहता है तो उसका परिहार भागवतपुराण (१३।२०) से भली-भांति हो जाता है, जहाँ नाभि और मरुदेवी के पुत्र ऋषभ के चरित्र व तप का विस्तार से वर्णन किया है, और यह भी कह दिया गया है कि वे विष्णु के अवतार थे तथा वातरशना श्रमणों की परम्परा में उत्पन्न हुए थे। इसका अधिक विस्तार से वर्णन डॉ० हीरालाल जैन कृत पुस्तक 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' पृ०११ आदि में देखा जा सकता है। इससे वैदिक परम्परानुसार ही यह सिद्ध हो जाता है कि श्रमण मुनि उस समय विद्यमान थे जब वेदों की रचना हुई, एवं उन मुनियों के नायक केशी वृषभ अर्थात् तीर्थंकर ऋषभनाथ की उस समय भी वन्दना की जाती थी। वेदों के रचनाकाल के सम्बन्ध में विद्वानों का मतभेद है । तथापि ईसवी पूर्व डेढ़ हजार वर्ष से भी पूर्व उनकी रचना हुई होगी, इसमें किसी को कोई सन्देह नहीं । अत: जैन पुराण के आदिनायक इससे अर्वाचीन तो हो ही नहीं सकते। और इसके भी पूर्व क्या किसी परम्परा का पता चलता है ? हाँ, सिन्धुघाटी के मुहेंजोदड़ो हड़प्पा आदि स्थानों की खुदाई से जो भग्नावशेष मिले हैं वे वैदिक आर्यों से पृथक तथा सम्भवतः उनसे अधिक प्राचीन सभ्यता की सूचना देते हैं। इन अवशेषों में बहुत से मुद्रालेख भी हैं, किन्तु उन्हें निश्चित रूप से पढ़ने व समझने की कोई कुंजी अभी तक हाथ नहीं लगी। तथापि अन्य अवशिष्टों से उस प्राचीन सभ्यता की भौतिक व सामाजिक रीति-नीति का कुछ अनुमान लगाया गया है। प्रकृत विषय के लिए विशेष उपयोगी एक दो मूर्तियां ध्यान देने योग्य हैं-एक नग्न मस्तकहीन मूर्ति जो लोहानीपुर (बिहार) से प्राप्त प्राचीनतम जैन मूर्ति

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 ... 782