Book Title: Adi Puran Part 1
Author(s): Jinsenacharya, Pannalal Jain
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 9
________________ प्रधान सम्पादकीय [प्रथम संस्करण से ] " पुरानी बात को पुराण कहते हैं। जब वह बात महापुरुषों के विषय में कही जाती है, या महान् आचायों द्वारा उपदेश के रूप में बतलायी जाती है, अथवा महाकल्याण का अनुशासन करती है, तब वह महापुराण कहलाती है । अन्य विद्वान् ऐसी भी निरुक्ति करते हैं कि पुराने कवि के आश्रय से प्रचलित हुई बात में ही पुराणपन आता है, और उस बात के अपने महत्व से वह महापुराण बन जाती है। अतः महर्षियों ने परम्परा से उसे ही महापुराण माना है जो महापुरुषों से सम्बन्धित हो, व महान् अभ्युदय का उपदेश करता हो । यही महापुराण ऋषि-प्रणीत होने से 'आर्ष' कहलाता है । सुन्दर भाषा में वर्णित होने से 'सूक्त' तथा धर्म का उपदेश देने से 'धर्मशास्त्र' भी माना गया है। 'इति ह आस (आसीत् ) ' अर्थात् 'ऐसी बात हुई थी' इस प्रकार श्रुति का बचन होने से उसे 'इतिहास' कहना भी इष्ट है। दूसरे शब्दों में उसे इतिवृत्त, ऐतिह्य व आम्नाय कहने की भी प्रथा है । अतः जो इतिहास भी कहलाता है, उस पुराण को जैसा गौतम गणधर ने कहा था उसे ही परम्परानुसार मैं भक्तिवश यहाँ वर्णन करता हूँ।" यह है पुराण व महापुराण की व्याख्या जो जिनसेनाचार्य ने अपने महापुराण की उत्थानिका (१,२१२६) में की है। उससे जैन पुराणकारों का उद्देश्य व दृष्टिकोण सुस्पष्ट हो जाता है कि पुराण के नायक वे ही महापुरुष हो सकते हैं जिनके चरित्र पूर्वपरम्परानुसार लोक प्रसिद्ध हैं तथा जिनके द्वारा लोक-जीवन का उत्कर्ष व अभ्युदय होना सम्भव है । यही मत पउमचरिय के कर्ता विमलसूरि का है जब वे कहते हैं कि "मैं आचार्य-परम्परा से आये हुए राम के चरित्र को कहता हूँ" (१1८) । यही बात रविषेण ने पद्मपुराण में कही है कि "मैं राम के चरित का वही वर्णन करता हूँ जो विद्वानों की पंक्ति में चला आया है, क्योंकि ऐसे ही महापुरुष के कीर्तन से विज्ञान की वृद्धि होती है, निर्मल यश फैलता है तथा पाप दूर हट जाता है” (१।२१२४) । और यही बात हमें जिनसेनकृत हरिवंशपुराण में इस प्रकार मिलती है कि "देश और काल की गतिविधि के ज्ञाता आचार्यों को जहाँ-तहाँ से वहीं पुराण- वृत्त संग्रह कर वर्णन करना चाहिए जो पुरुषार्थ-साधन में उत्साहवर्धक हो" (१1७० ) । ऐसा पुराण ही इस देश का प्राचीन इतिहास है, क्योंकि उसके भीतर पूर्वकालीन महापुरुषों के चरित्रों तथा लोक-जीवन के आदर्श व मापदण्डों का समावेश हो जाता है। जिनसे कोई श्रेयस्कर शिक्षा न मिले उन छुटपुट पापपरायण वृत्तान्तों का संग्रह करना जन-कल्याण व साहित्य की दृष्टि से निष्फल है। रामायणकार महर्षि वाल्मीकि ने नारद से यही जानने की इच्छा प्रकट की थी कि "जो कोई इस लोक में बलवान्, धर्मज्ञ, सत्यवाक्, दुद्रुव्रत तथा समस्त जीवों का हितकारी, क्रोध को जीतने वाला और ईर्ष्या से रहित हो, उसी का चरित्र में सुनना चाहता हूँ ।" और इसी जिज्ञासा के उत्तर में नारद ने उन्हें राम का चरित्र- सुनाया, , क्योंकि वे धर्मज्ञ थे, सत्यवादी थे, प्रजा के हितैषी, यशस्वी, ज्ञानसम्पन्न, शुद्धाशय, इन्द्रियों को वश में रखने वाले और एकाग्रमन आदि गुणों से सम्पन्न थे (रामा० १२-१२) । रामायण की उत्पानिका से एक और बात सुस्पष्ट हो जाती है । वह यह कि जब तक कवि का हृदय दया, करुणा व अहिंसा की भावना से ओतप्रोत न हो, तब तक वह सच्चे कल्याणकारी काव्य की रचना में प्रवृत नहीं हो सकता । नारद से राम का वृत्त सुनकर भी वाल्मीकि मुनि के अन्तरंग से काव्य की धारा तो तभी प्रवाहित हो सकी, जब उन्होंने एक निषाद को एक क्रौंच पक्षी को मारते देखा और उनका हृदय करुणा से रो उठा । ऐसे महापुरुषों का संस्मरण जैनधर्म में मूलतः ही प्रचलित रहा है। तीर्थंकर महावीर के उपदेशों का

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