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आदिपुराण
कि उस आचरण से हमारी मूल धार्मिक आस्था एवं सच्चरित्र की नींव को कोई क्षति न पहुँचे। इस बात को एक जैनाचार्य ने बहुत स्पष्टता से कह दिया है कि "सर्व एव हि नानां प्रमाण लौकिको विधिः । यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥" अर्थात् लोक प्रचलित वे सभी व्यवहार जैनियों को प्रमाण रूप से मान्य हैं जिनसे उनके सम्यक्त्व अर्थात् जड़ और चेतन के मौलिक भेद की मान्यता को हानि नहीं पहुँचती, तथा अहिंसादि व्रतों में दूषण उत्पन्न नहीं होता। जिन लोकाचारों में अपनी धार्मिक दृष्टि से कोई दोष दिखाई दे, उन्हें सुधार कर अपने अनुकूल बना लेना चाहिए। इस प्रकार जैनाचार्यों ने जैन धर्म के अनुयायियों के लिए एक महान् आदर्श उपस्थित कर दिया है कि अपने मूल सिद्धान्तों के सम्बन्ध में कभी मत झुको, तथा सामान्य लौकिक व्यवहारों में कोई अलगाव मत रखो । रहो समाज के साथ, किन्तु अपनी बौद्धिक स्वतन्त्रता को मत खोओ। बस, अन्य परम्पराओं से मेल व बेमेल की बातों को हमें इसी कसोटी पर कसकर देखना और समझना चाहिए । एक बात और है । वर्णों, आश्रमों व संस्कारों के स्वरूप पर विचार करने से प्रतीत होता है कि उनका मौलिक ढाँचा वैयक्तिक, कौटुम्बिक तथा सामाजिक रीतियों और प्रथाओं पर आधारित है। क्रमशः उनमें धार्मिक क्रियाओं का समावेश कर उन्हें स्थिरता और पवित्रता प्रदान करने का प्रयत्न किया गया है। उदाहरणार्थ, जन्म या विवाह सभी कुटुम्बों में सार्वत्रिक और सार्वकालिक हैं, और उन अवसरों पर कुछ सामाजिक उत्सव, आमोद-प्रमोद मनाना स्वाभाविक है। धर्म ने इन सुप्रचलित उत्सवों को अपनी गोद में लेकर उन पर एक विशेष रंग चढ़ा दिया। यह कार्य उनके मनाने वालों ने अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार किया और उन्हें अपने धर्म का अंग बना लिया।
प्राचीन प्रतियों के पाठभेद सावधानीपूर्वक अंकित करना आधुनिक सम्पादन-प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इस दृष्टि से महापुराण का प्रस्तुत संस्करण बहुत उपयोगी है। इसके लिए विद्वान् सम्पादक ने १२ प्रतियों का उपयोग किया है व उनके पाठभेद लिये है। कुछ पाठभेद बड़े बहुमूल्य पाये जाते हैं। उदाहरणार्थ, पांचवें पर्व में ४१वें पद्य के आगे दिल्ली वाली प्रति में चार अधिक पद्य हैं, जिनमें बौद्ध सिद्धान्त सम्मत पंचस्कन्धों, द्वादश आयतनों, समुदाय, क्षणिकत्व व मोक्ष का उल्लेख पाया जाता है। इन्हें पं० लालाराम जी शास्त्री ने अपने मुद्रित व अनुवादित संस्करण में प्रथम अर्ध पद्यांश छोड़कर समाविष्ट किया है। किन्तु ये पद्य न तो मूडबिद्री सरस्वती भण्डार की उपलब्ध प्राचीनतम ताडपत्रीय कन्नड लिपिवाली प्रति में पाये जाते हैं और न अन्य किसी प्रति में । इससे सिद्ध होता है कि उक्त पद्य किसी पाठक व टिप्पणकार द्वारा सम्भवतः हासिये में लिखे गये होंगे और फिर मूल पाठ में प्रविष्ट हो गये।
अन्त में हम पं० पन्नालाल जी साहित्याचार्य के बहुत कृतज्ञ हैं जिन्होंने महापुराण का यह बहुमूल्य संस्करण व उसका हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किया। भारतीय ज्ञानपीठ का अधिकारी वर्ग भी अभिनन्दनीय है जो उन्होंने साहित्य की इस महानिधि का यह प्रकाशन बड़ी तत्परता से करके साहित्यिकों व स्वाध्याय-प्रेमियों का उपकार किया है।
वि. संवत् २००७
-हीरालाल जैन -आ. ने. उपाध्ये (ग्रन्थमाला सम्पादक)