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मारिपुराण
समान आजीविका वाले मिथ्यादृष्टियों से भी सम्बन्ध करते आये हैं । अब तुम्हारे साथ हमारा सम्बन्ध होगा। यह कहकर उसे अपने समकक्ष बना लेते हैं । यह वर्णलाभ क्रिया है। - इसके बाद आर्यषट्कर्म से जीविका करना उसकी कुलचर्या क्रिया है । धीरे-धीरे व्रत, अध्ययन आदि से पुष्ट होकर वह प्रायश्चित्त-विधानादि का विशिष्ट जानकार होकर गृहस्थाचार्य के पद को प्राप्त करता है, यह गहीशिता क्रिया है। फिर प्रशान्तता, गृहत्याग, दीक्षाद्य और जिनदीक्षा ये क्रियाएँ होती हैं। इस तरह ये दीक्षान्वय क्रियाएँ हैं।
इन दीक्षान्वय क्रियाओं में किसी भी मिथ्यात्वी भव्य को अहिंसादि व्रतों के संस्कार से द्विज-ब्राह्मण बनाया है और उसे उसी शरीर से मुनिदीक्षा तक का विधान किया है। इसमें कहीं भी यह नहीं लिखा कि उसका जन्म या शरीर कैसा होना चाहिए? यह अजैनों को जैन बनाना और उसे व्रत-संस्कार से ब्राह्मण बनाने की विधि सिद्ध करती है कि जैन परम्परा में वर्णलाभ-क्रिया गुण और कर्म के अनुसार है, जन्म के अनुसार नहीं । इसकी एक ही शर्त है कि उसे भव्य होना चाहिए और उसकी प्रवृत्ति सन्मार्ग के ग्रहण की होनी चाहिए। इतना ही जैन दीक्षा के लिए पर्याप्त है। वह हिंसादि पाप, वेद आदि हिंसा विधायक श्रुत और क्रूर मांसवृत्तिक देवताओं की उपासना छोड़कर जैन बन सकता है, जैन ही नहीं ब्राह्मण तक बन जाता है और उसी जन्म से जैन परम्परा की सर्वोत्कृष्ट मुनिदीक्षा तक ले लेता है । यह गुण कर्म के अनुसार होने वाली वर्णलाभ क्रिया मनुष्य मात्र को समस्त समान धर्माधिकार देती है। .
अब जरा कत्रन्वय क्रियाओं को देखिए-कन्वय क्रियाएं पुण्यकार्य करने वाले जीवों को सन्मान आराधना के फलस्वरूप से प्राप्त होती हैं। वे हैं-सज्जातित्व, सद्गृहित्व, पारिवाज्य, सुरेन्द्रता, साम्राज्य, परमार्हन्त्य और परिनिर्वाण । ये सात परमस्थान जैन धर्म के धारण करने वाले आसन्न भव्य को प्राप्त होते हैं।
सज्जातित्व की प्राप्ति आसन्नभव्य को मनुष्य-जन्म के लाभ से होती है। वह ऐसे कुल में जन्म लेता है जिसमें दीक्षा की परम्परा चलती आयी है । पिता और माता का कुल और जाति शुद्ध होती है अर्थात् उसमें व्यभिचार आदि दोष नहीं होते, दोनों में सदाचार का वर्तन रहता है । इसके कारण सहज ही उसके विकास के साधन जुट जाते हैं । यह सज्जन्म आर्यावर्त में विशेष रूप से सुलभ है । अर्थात् यहाँ के कुटुम्बों में सदाचार की परम्परा रहती है। दूसरी सज्जाति संस्कार के द्वारा प्राप्त होती है। वह धर्मसंस्कार व्रतसंस्कार को प्राप्त होकर मन्त्रपूर्वक व्रतचिह्न को धारण करता है। इस तरह बिना योनिजाम के सद्गुणों के धारण करने से वह सज्जातिभाक् होता है। सज्जातित्व को प्राप्त करके वह आर्यषट्कर्मों का पालन करता हुआ सद्गृही होता है। वह गृहस्थचर्या का आचरण करता हुआ ब्रह्मचर्यत्व को धारण करता है । वह पृथ्वी पर रहकर भी पृथ्वी के दोषों से परे होता है। और अपने में दिव्य ब्राह्मणत्व का अनुभव करता है । जब कोई अजैन ब्राह्मण उनसे यह कहे कि तू तो अमुक का लड़का है, अमुक वंश में उत्पन्न हआ है, अब कौन ऐसी विशेषता आ गयी है जिससे तू ऊंची नाक करके अपने को देव-ब्राह्मण कहता है ? तब वह उनसे कहे कि मैं जिनेन्द्र भगवान् के ज्ञानगर्भ से संस्कारजन्म लेकर उत्पन्न हुआ हूँ। हम जिनोक्त अहिंसामार्ग के अनुयायी हैं । आप लोग पापसूत्र का अनुगमन करने वाले हो और पृथ्वी पर कण्टकरूप हो। शरीरजन्म और संस्कारजन्म ये दो प्रकार के जन्म होते हैं। इसी तरह मरण भी शरीरमरण और संस्कारमरण के भेद से दो प्रकार का है। हमने मिथ्यात्व को छोड़कर संस्कारजन्म पाया है अतः हम देवद्विज हैं। इस तरह अपने में गुरुत्व का अनुभव करता हुआ, सद्गृहित्व को प्राप्त करता है । जैन-द्विज विशुद्ध वृत्तिवाले हैं, वे वर्णोत्तम हैं । 'जब जैन द्विज षट्कर्मोपजीवी हैं तब उनके भी हिंसा दोष तो लगेगा ही' यह शंका उचित नहीं है; क्योंकि उनके अल्प हिंसा होती है तथा उस दोष की शुद्धि भी शास्त्र में बतायी है । इनकी विशुद्धि पक्ष, चर्या और साधन के भेद से तीन प्रकार की है, मैत्री आदि भावनाओं से चित्त को भावित कर सम्पूर्ण हिंसा का त्याग करना जैनियों का पक्ष है । देवता के लिए, मन्त्रसिद्धि के लिए या अल्प आहार के लिए भी हिंसा न करने का संकल्प चर्या है । जीवन के अन्त में देह आहार आदि का त्याग कर ध्यानशुद्धि से आत्मशोधन करना साधन है।