________________
अभिनव प्राकृत-व्याकरण
पासिद्धी, पसिद्धी प्रसिद्धिः। --- पाडिवआ, पडिवआ< प्रतिपदा । पासुत्तं, पसुत्तं प्रसुप्तम् । पाडिसिद्धी, पडिसिद्धी प्रतिसिद्धि । सारिच्छो, सरिच्छो< सदृक्षः । माणंसी, मणंसी मनस्वी। माणंसिनी, मणंसिनी मनस्विनी । आहिआई, अहिआई < अभियाति । पारोहो, परोहो< प्ररोहः। पावासू, पवासू< प्रवासी।
पाडिप्फद्धी, पडिप्फद्धी< प्रतिस्पर्धी । विशेष-प्राकृत प्रकाश में इस गण को आकतिगण माना गया है। हेमचन्द्र ने भी आकतिगण होने से निम्न शब्दों की भी निष्पत्ति बतलायी है।
आफैसो < अस्पर्शः पारकेरं, पारक्कंद परकीयम् । पावयणं प्रवचनम्।
चाउरन्त < चतुरन्तम् । (२०) दक्षिण शब्द में आदि अकार को ह के पर में रहने पर दीर्घ होता
दाहिणो = दक्षिण:-क्ष के स्थान पर ह होने से दीर्घ हुआ है । क्ष के स्थान पर ह नहीं होने पर 'दक्षिणः' का दक्खिणो यह रूप बनता है। ( २१ ) स्वप्न आदि शब्दों में आदि अ का इकार होता है। उदाहरण
सिविणो, सिमिणो, सुमिणो< स्वप्नः । इसिर ईषत् । वेडिसो बेतस: विलिअंदव्यलीकम् ।
विअणं < व्यजनम् । १. या समृद्धयादिसु वा ११२ -प्राकृतिगणोयम् । वर० । २. प्राकृतिगणोयम् तेन अस्पर्शः, आफंसो-इत्यादि ८।१।४४ सूत्र की वृत्ति हे । ३. दक्षिणे हे ८।१।४५. दक्षिणशब्दे प्रादेरतो हे परे दी? भवति । ४. इः स्वप्नादौ ८।१।४६. स्वप्न इत्येवमादिषु प्रादेरस्य इत्वं भवति । हे ।
इदीषत्पक्व स्वप्नवेतसव्यजनमृदङ्गाङ्गारेसु १।३ वर० ।