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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
( १६९ ) जिस संयुक्त अक्षर का अन्त लंकार से होता है, उसका विप्रकर्षपृथक्करण हो जाता है और पूर्व के अक्षर को इस्व भी होता है ।' यथा-
किलिएणं <क्लिन्नम् - क और ल को अलग-अलग कर दिया तथा इत्व किया। किलिट्टे <क्कष्टम् - क और ल का पृथक्करण, इत्व और संयुक्त प का लोप और ट को द्विस्व ।
सिलिट्टं <श्लिष्टम् - स और ल का पृथक्करण, प् लोप और ट को द्वित्व । पिलुट्टं स्लम् - प और ल का पृथक्करण, इत्व, प् लोप और ट को द्वि सिलोओ श्लोकः -- श और ल का पृथक्करण, इत्व, क का लोप और अ स्वर शेष तथा ओत्व ।
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किलेसो क्लेश:- क और ल का पृथक्करण, श को स, इत्व, और तालव्य श को दन्त्य स ।
मिलानं < म्लानम् – म और ल का पृथक्करण, इत्व, नका त्व । किलिस्सइ << क्लिश्यति क और ल का पृथक्करण, इस्त्र, य लोप और स
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विशेष - कमोक्लमः पवो दल और सुक्कपक्खो शुक्लपक्षः में उक्त नियम लागू नहीं होता ।
( १७० ) उकारान्त, किन्तु ङी प्रत्यान्त तन्वी सदृश शब्दों में वर्तमान संयुक्ताक्षरों का विप्रकर्ष - पृथक्करण होता है और पूर्व के अक्षर में उकार योग हो जाता है । यथा
तिणुवी, तणुई - तन्वी = त और न (ण) का पृथक्करण और उत्व, व का लोप होने पर ई स्वर शेष |
लहुवी, लहुई लध्वीगुरुवी, गुरुपुहुवी पृथ्वी
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सुहुमं सूक्ष्मम् -- सूक्ष्मम् के स्थान पर सुहुम हो जाता है ।
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१. लात् - - ८।२।१०६. हे० ।
२. तन्वीतुल्येषु ८ । २।११३. हे
३. एकस्वरे श्वः स्वे ८।२ । ११४. हे० ।
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( १७१ ) जब श्वस् और स्व शब्द किसी समास के अंग न होकर पृथकू ही एक पद हों तो उनका विप्रकर्ण - पृथक्करण हो जाता है और पूर्व के व्यञ्जन में उ स्वर का योग भी हो जाता है । यथा-
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