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जैन महाराष्ट्री
अर्धमागधी के आगम ग्रन्थों के अतिरिक्त चरित, कथा, दर्शन, तर्क, ज्योतिष, भूगोल और स्तोत्र आदि विषयक प्राकृत का विशाल साहित्य है । इस साहित्य की की भाषा को वैयाकरणों ने जैन महाराष्ट्री नाम देकर महाराष्ट्री और अर्धमागधी से पृथक् इस भाषा का अस्तित्व बताया है । यद्यपि काव्य और नाटकों की भाषा से यह भाषा बहुत कुछ अंशों में मिलती-जुलती है; फिर भी यह एक स्वतन्त्र भाषा है । इसका रूप महाराष्ट्री और अर्धमागधी के मिश्रण से निर्मित हुआ है । आगम ग्रन्थों पर रचे गये बृहत्कल्पभाष्य, व्यवहारसूत्रभाष्य, विशेषावश्यकभाष्य एवं निशीधचूर्णि प्रभृति टीका और भाष्य ग्रन्थों में भी इस भाषा का प्रयोग पाया जाता है। धर्मसंग्रहणी, समराइच्चकहा, कुवलयमाला वसुदेवहिण्डी, पउमचरिय प्रभृति ग्रन्थों में भी इसी भाषा का प्रयोग हुआ है । हमें ऐसा लगता है कि काव्यों और नाटकों की भाषा से यह जैन महाराष्ट्री प्राचीन है । अर्धमागधी की भाषागत प्रवृत्तियों में थोड़ा-सा परिवर्तन होकर I जैन महाराष्ट्री का विकास हुआ होगा और इसी जैन महाराष्ट्री से व्यंजन वर्णों का लोप होकर काव्य और नाटकों की महाराष्ट्री का प्रादुर्भाव हुआ है। जैन महाराष्ट्री की मूलप्रवृत्ति अर्धमागधी से सम्बन्ध रखती है । इसमें अधिक व्यञ्जनों का लोप नहीं होता है । य और व जैसे मृदुल व्यञ्जनों को अत्यधिक स्थान प्राप्त है। अर्धमागधी और शौरसेनी के समान इस भाषा की मूलप्रवृत्ति पर संस्कृत का पर्याप्त प्रभाव लक्षित होता है । ध्वनिपरिवर्तन सम्बन्धी जैन महाराष्ट्री की निम्न विशेषताएँ हैं :( १ ) क के स्थान में अनेक स्थलों में ग पाया जाता है । सावग श्रावक - क के स्थान पर ग हुआ' है 1 निगरं निकरम् - मध्यवर्ती क के स्थान पर ग ।
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यथा
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तित्थगद तीर्थंकरः —क के स्थान पर ग । लोगो लोकः आगरिसी < आकर्ष: आगारो आकार:
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उवासगो उपासकः दुगुल्लं 4 दुकूलम् - गेंदुअं 4 कन्दुकम् -
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महाराष्ट्री में कन्दुक रूप भी पाया जाता है ।
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इस शब्द का विकल्प से जैन
( २ ) लुप्त व्यञ्जनों के स्थान पर य श्रुति होती है । यथाकहाणयं कथानकम् — यहाँ लुप्त क के स्थान पर य श्रुति । भगवया भगवता — लुप्त त के स्थान पर य ।