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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
एवि-कर + एवि = करेवि, कर्तुम्-करना ।
पाल् + एवि = पालेवि< पालयितुम्-पालना। एविणु-कर + एविशु = करेविणुः कर्तुम्-करना । ला + एविणु = लेविणु < लातुम्-लाना।
विध्यर्थ कृदन्त ( ७५ ) अपभ्रंश में 'चाहिए' या किसी विधिविशेष के लिए इएव्वलं, एव्वउं एवं एवा प्रत्यय जोड़े जाते हैं। संस्कृत में जिस अर्थ में तव्य प्रत्यय जोड़ा जाता है या हिन्दी में 'चाहिए' जोड़ते हैं, उसी अर्थ में उक्त प्रत्यय लगाये जाते हैं । यथाइएव्वउं-कर + इएव्यउं = किरएव्वउं< कर्तव्यम् ।
मर + इएव्वउं = मरिएव्वउं< मर्तव्यम् ।
सह + इएच = सहिएव्वउं< सोढव्यम् । एव्वउं-कर + एव्वळ = करेव्वउं< कर्तव्यम् ।
मर + एव्वउं = मरेव्वउं< मर्तव्यम् ।
सह + एव्वउं - सहेव्वउं< सोढव्यम् । एवा-कर + एवा = करेवार कर्तव्यम् ।
मर + एवा = मरेवा< मर्तव्यम् । सह + एवा = सहेवा< सोढव्यम् । सो + एवा = सोएवार स्वप्तव्यम् । जग्ग+ एवा = जग्गेवार जागरितव्यम् ।
शीलार्थक (७६ ) संस्कत में शीलधर्म को बतलाने के लिए तृ प्रत्यय लगाया जाता है ; या अपभ्रंश में शील, स्वभाव और साध्वर्थ में अणअ प्रत्यय जोड़ा जाता है। अणअ-हस + अणअ = हसणअ-- हसणउ-हसनशील ।
भस + अणअ = भसणअ-भसणउ-भौंकनेवाला । कर + अणअ = करणअ-करणउ-करनेवाला। मार + अणअ = मारणअ-मारणउ-करनेवाला । वज = अणअ = वजणअ-वजणउ-वादनशील ।
क्रियाविशेषण वहिल्लउ-शीघ्र, निञ्चटु---प्रगाढ, कोड्ड-कौतिक, ढक्करि-अभुत, दड़वड़शीघ्र एवं जुअंजुअ...- अलग-अलग आदि है।
विद्यालु-नीच संसर्ग, अप्पणु-आत्मीय, सडढलु-असाधारण, रवण्ण-सुन्दर, नालिअ, वढ-मूर्ख और नवख-नया-विचित्र आदि विशेषण भी अपनंश में उपलब्ध हैं।