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पैशाची पैशाची एक बहुत प्राचीन प्राकृत भाषा है। इसकी गणना पालि, अर्धमागधी और शिलालेखीय प्राकृतों के साथ की जाती है। चीनी-तुर्किस्तान के खरोष्ट्री शिलालेखों में पैशाची की विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। डा० जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार पैशाची पालि का एक रूप है, जो भारतीय आर्यभाषाओं के विभिन्न रूपों के साथ मिश्रित हो गयी है।
पैशाची की प्रकृति शौरसेनी है। मार्कण्डेय ने पैशाची भाषा को कैकय, शौरसेन और पञ्चाल इन तीन भेदों में विभक्त किया है। अत: सिद्ध होता है कि पैशाची भाषा पाण्ड, काञ्ची और कैकय आदि प्रदेशों में बोली जाती थी। अब यहां यह आशंका उत्पन्न होती है कि इतने दूरवर्ती इन तीनों प्रदेशों में एक ही भाषा का व्यवहार क्यों और कैसे होता था ? इसका उत्तर यह हो सकता है कि पैशाची भाषा एक जातिविशेष की भाषा थी। यह जाति जिस जिस स्थान पर गयी, उस उस स्थान पर अपनी भाषा को भी लेती गयी। अनुमान है कि यह कैकय देश में उत्पन्न हुई और बाद में उसीके समीपस्थ शूरसेन और पक्षाब तक फैल गयी। डा० सर जार्ज ग्रियर्सन के अनुसार पैशाची का आदिम स्थान उत्तर-पश्चिम पञ्जाब अथवा अफगानिस्तान प्रान्त है। यहीं से इस भाषा का अन्यन्न विस्तार हुआ है। डा० हार्नलि का मत है कि अनार्य लोग आर्यजाति की भाषा का जिस विकृत रूप में उच्चारण करते थे,वह विकृत रूप ही पैशाची भाषा का है। दूसरे देशों में यों कहा जा सकता है कि द्राविड भाषा से प्रभावित आर्यभाषा का एक रूप पैशाची प्राकृत है। पंजाब, सिन्ध, विलोचिस्तान और काश्मीर की भाषाओं पर इसका प्रभाव आज भी लक्षित होता है।
वाग्भट्ट ने पैशाची को भूतभाषा कहा है। पिशाच नाम की एक जाति प्राचीन भारत में निवास करती थी। उसकी भाषा को पैशाची कहा गया है। पैशाची की व्याकरण सम्बन्धी निम्न विशेषताएँ है
(१) पैशाची शब्दों में आदि में न रहने पर, वर्गों के तृतीय और चतुर्थ वर्णों के स्थान पर उसी वर्ग के क्रमश: प्रथम और द्वितीय वर्ण हो जाते हैं। यथा
गकनंद गगनम्-ग के स्थान पर क हुआ है।
मेखो< मेघ---ऋवर्ग के चतुर्थ वर्ण घ के स्थान पर उसी वर्ग का द्वितीय वर्ण ख हुआ है।
१. वर्गाणां तृतीयचतुर्थयोरयुजोरनाद्योराद्यौ १०।३ वरः ।