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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
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(५) कुछ पदों में समास होने पर उत्तरपद के पूर्व म् का आगम हो जाता है ।
यथा
अन्नमन्न <<अन्न + अन्न-उत्तर पद के अन्न के पूर्व मकारागम । एगमेग = एग + एग- उत्तर पद एग के पूर्व मकारागम । चित्तमाणं दियं : चित्त + आनंदियं = उत्तर पद आनंदियं के पूर्व मकारागम । (६) पाय, माय, गिच्छिग, पडुप्पण, साहि, सुहुम आदि शब्दों का पत्त मेत इच्छय आदि की तरह उपयोग होता है ।
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(७) तृतीया के एकवचन में अर्धमागधी के समान कहीं-कहीं सा का प्रयोग भी पाया जाता है । और प्रथमा विभक्ति के एकवचन में महाराष्ट्री के समान ओ पाया जाता है । यथा
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मन + सा = मणसा < मनसा ; - जिण - जिणो वय + सा = वयसा द वचसा; वीर-वीरो ।
काय + सा = कायसा 4 कायेन; गोयम = गोयमो ।
( ८ ) आइक्खइ, कुव्वाइ, सडइ, सोलइ, वोसिरह प्रभृति धातुरूप उपलब्ध होते हैं । ( ९ ) क्त्वा प्रत्यय के रूप अर्धमागधी के च्चा और त्तु प्रत्यय जोड़ने से भी बनाये जाते हैं । महाराष्ट्री तूण और ऊण भी पाये जाते हैं । यथा—
सुण +च्चा = सो + च्चा = सोचा
श्रुत्वा ।
कृ + च्चा = कि +च्चा = किच्चा वंदित्तु — वंदि + त्तु = वंदित्तु
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आलोचि + ऊण = आलोचिऊण आलोच्च ।
कृत्वा ।
वंदित्वा |
चवि + ऊ = चविऊण च्युत्वा । मुच् + तूण – मोत्त् + तूण = मोत्तूण
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मुक्त्वा ।
( १० ) त प्रत्ययान्त रूप ड में परिवर्तित दिखलायी पड़ते हैं । यथा
कर्ड < कृतम्-त के स्थान पर ड ।
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वावडं व्यापृतम्संवुडं संवृत्तम् - ( ११ ) असू धातु का सभी काल, समान आसी रूप पाया जाता है । सभी अहेसी रूप भी उपलब्ध होता है ।
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वचन और सभी पुरुषों में अर्धमागधी के कालों के बहुवचन में महाराष्ट्री के समान
अवशेष नियम प्राकृत के समान ही जैन महाराष्ट्री में प्रवृत्त होते हैं ।