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अभिनव प्रकृित-व्याकरण
चेयणा चेतना-लुप्त त के स्थान पर य । भणियं र भणितम्- , , विसायं र विषाद-लुप्त द के स्थान पर य । महारायस्सार महाराजस्य-लुप्त ज के स्थान पर य । स्ययं < रजतम्-लुप्त ज और त के स्थान पर य । पयावई ८ प्रजापतिः - लुप्त ज के स्थान पर य । गया< गदा–लुप्त द के स्थान पर य । कयग्गहो< कचप्रहः -लुप्त च के स्थान पर य । कायमणी काचमणिः - , , , लायणं < लावण्यम्-लुप्त व के स्थान पर य । मयणो मदन: - लुप्त द के स्थान पर य ।
यह प्रवृत्ति काव्य और नाटकों की भाषा में नहीं पायी जाती है और न अर्धमागधी में सार्वत्रिक मिलती है। महाराष्ट्री में व्यजनों का लोप होने पर मात्र स्वर शेष रह जाते हैं। य श्रुति की प्रवृत्ति जैन महाराष्ट्री का प्रमुख चिह्न है।।
(३ ) शब्द के आदि और मध्य में भी ण की तरह न रह जाता है। यह प्रवृत्ति अर्धमागधी की देन है। यथा
नाणुमयमेएसि नानुमतमेतयोः -आदि न ज्यों का त्यों स्थित है। नियमोववसिहिद नियमोपवासै: - नियट्टीएर निकृत्यनूगमेसाद नूनमेषाभत्तिनिब्भरा भक्तिनिर्भरा-मध्य न ज्यों का त्यों स्थित है। अणुन्नविय अनुज्ञाप्यकहमन्नयाः कथमन्यथाअलहनिहा- अलब्धनिद्रा- , उववन्नाओ त्ति< उपपन्ने इति- , अन्नहा<अन्यथाकन्नयाएर कन्यकाया:पडिवन्ना प्रतिपन्ना-अन्तिम न ज्यों का त्यों स्थित है। नुवन्ना एसा<निपन्ना एषा-आदि और अन्तिम न ज्यों का त्यों स्थित है। नुवन्नो< निपन्न: - , " " समुप्पन्नाः समुत्पन्ना-अन्तिम न ज्यों का त्यों स्थित है । उववन्नोर उत्पन्नः- , , , विवाहजनो< विवहयज्ञः
( ४ ) यथा और यावत् के स्थान में क्रमशः जहा और जाव की तरह अहा और आव भी होते हैं।