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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
४५६ वासु महारिसि एउ' भणइ< व्यासो महर्षिः एतद् भणति । बहुल रूप में कहने से नियम की प्रवृत्ति नहीं भी पायी जाती है । यथावासेण वि भारहखम्भि बद्ध ८ व्यासेनापि भारतस्तम्भे बद्धम् ।
( १८ ) अपभ्रंश में प्राकृत के म्ह के स्थान में विकल्प से म्भ आदेश होता है। यथा
गिम्भो< गिम्हो-प्राकृत के म्ह के स्थान पर म्भ आदेश हुआ है।
अभिप्राय यह है कि संस्कृत के क्षम, श्म, म, स्म और म्ह के स्थान पर प्राकृत में म्ह आदेश होता है और प्राकृत के इस म्ह के स्थान पर अपभ्रंश में म्भ आदेश हो जाता है । यथा
संस्कृत ब्रह्म का प्राकृत में बम्ह रूप बनता है और इस बम्ह का अपभ्रंश में बम्भ बन जाता है।
अपभ्रंश में स्वरों के बीच में स्थित छ को च्छ होता है । यथाविच्छ वृक्ष-क्ष के स्थान पर छ और छ को च्छ हुआ है। (१९) अपभ्रंश में ड, त और र के स्थान पर क्वचित् ल होता है । यथाडल-कील < क्रीडा, सोलस <षोडश, तलाउ< तडाग, नियल निगड, पीलिय < पीडित-ड के स्थान ल हुआ है। त = ल-अलसी अतसी, विजुलिया< विद्युतिका । र =ल-चलण< चरण । य = ज-जमुना< यमुना; जसु< यस्य । व = य-पयट्ट< प्रवृत्त–व के स्थान पर य, ऋ को अ, प्र को प और त कोह। ष= छ-छ<षट्-षट् के स्थान पर छ । ष=ह-पाहान < पाषाण-पके स्थान पर ह हुआ है।
(२०) अपभ्रंश में संयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन सम्बन्धी नियम प्रायः प्राकृत के ही समान हैं। कुछ स्थानों में विशेषताएँ पायी जाती हैं।
( २१ ) आदि संयुक्त व्यन्जन में यदि दूसरा व्यन्जन य, र, ल और व हो तो उसका लोप हो जाता है। यथा
जोइसिउदज्योतिषी-य का लोप, मध्यवर्ती त का लोप इ स्वर शेष, ष को स और विभक्ति प्रत्यय उ।
वावारउदव्यापार-पकार का लोप, य को व और विभक्ति का प्रत्यय उ । वामोह र व्यामोह-य का लोप। कील < क्रीड़ा-र का लोप और ड को ल।