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ग्यारहवाँ अध्याय
अपभ्रंश प्राकृत वैयाकरणों ने अपभ्रंश को प्राकृत का एक भेद माना है। काव्यालंकार की टीका में नमिसाधु ने “प्राकृतमेवापभ्रंशः” ( २।१२ ) अर्थात् शौरसेनी, मागधी आदि की तरह अपभ्रंश को प्राकृत का एक भेद बताया है। महर्षि पतञ्जलि ने अपने महाभाष्य में लिखा है "भूयांसोऽपशब्दा: अल्पीयांस: शब्दा इति । एकैकस्य हि शब्दस्य वहवोऽपभ्रंशा। तद्यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिकेत्यादयो बहवोऽपभ्रंशाः ।" अर्थात् संस्कृत व्याकरण में असिद्ध शब्दों को अपभ्रंश बताया है। दण्डी ने अपने काव्यादर्श में प्राकत और अपभ्रंश का अलग-अलग निर्देश किया है। पतञ्जलि के भाष्पवाले उपयुक्त कथन से भी स्पष्ट है कि संस्कृत से भिन्न सभी प्राकृत भाषाएँ अपभ्रंश के अन्तर्गत हैं। उनके गावी, गोणी, गोता और गोपोतलिका आदि उदाहरण उक्त अर्थ में ही चरितार्थ हैं।
डा० हार्नलि का मत है कि आर्यों की बोलचाल की भाषाएँ भारत के आदिम निवासी अनार्य लोगों की भिन्न-भिन्न भाषाओं के प्रभाव से जिन रूपान्तरों को प्राप्त हुई थीं, वे ही भिन्न-भिन्न अपभ्रंश भाषाएँ हैं और ये महाराष्ट्री की अपेक्षा अधिक प्राचीन हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन प्रति विद्वान् डा० हार्नलि के मत को नहीं मानते। इनका मत है कि साहित्यिक प्राकृतों को व्याकरण के नियमों में आबद्ध हो जाने पर जिन नूतन कथ्य भाषाओं की उत्पत्ति हुई, वे भाषाएँ अपभ्रंश कहलायीं । अपभ्रंश भाषा का साहित्य में प्रयोग ईस्वी सन् की पांचवी शताब्दी के पहले ही होने लगा था। अपभ्रंश भाषा के बहुत भेद हैं। प्राकृत चन्द्रिका में इसके सत्ताईस भेद बतलाये गये हैं। वाचड, लाटी, वैदर्भी, उपनागर, नागर, बार्बर, अवन्ती, पञ्चाली, टाक, मालवी, कैकेयी, गौडी, कौन्तली औढी, पाश्चात्त्या, पाण्ड्या, कौन्तली, सहली, कालिङ्गी, प्राच्या, कार्णाटी, काञ्ची, द्राविडी. गौर्जरी, आभीरी, मध्यदेशीया एवं वैतालिकी इन २७ भेदों का उल्लेख मार्कण्डेय ने भी अपने प्राकतसर्वस्व में किया है। प्रधान रूप से अपभ्रंश को नागर, उपनागर और वाचड इन तीन भेदों में ही विभक्त किया गया है।
१. पातञ्जल-महाभाष्यम् (प्रदीपोयोतसमन्वितम् ) पृ० १७; सन् १९३५ । २. टाक टकभाषानागरोपनागरादिभ्योऽवधारणीयम् । तु-बहुला मालवी। वाडीबहुला पाञ्चाली। उल्लप्राया वैदर्भी । संबोधनाढ्या लाटी । ईकारोकारबहुला प्रौढ़ी। सवीप्सा कैकेकी । समासान्या गौडी । डकारबहुला कौन्तली। एकारिणी च पारख्या । युक्ताट्या