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अभिनव प्राकृत-व्याकरण एकम्मि, एकम्हि, लोयम्मि, लोगम्हि, जैसे वैकल्पिक प्रयोग भी जैन शौरसेनी में पाये जाते हैं।
तेसिं< तेभ्यः ( प्र० सा० गा० ८२ ) चतुर्थी के बहुवचन में सिं प्रत्यय जोड़ा गया है। ___सव्वेसि ८ सर्वेषाम् (स्वा० का० १०३ ) पष्ठी के बहुवचन में सिं प्रत्यय जोड़ा गया है।
(९) कृ धातु का रूप जैन शौरसेनी में कुबदि भी मिलता है। इसका प्रयोग स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा गा० ३१३, ३२९, ३४०, ३६७, ३८४ आदि में देखा जाता है।
(१०) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा और प्रवचनसार में शौरसेनीके समान करेदि का भी निम्न गाथाओं में प्रयोग मिलता है । यथा स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा—गा० ६१, २२६, २९६, ३२०, ३ २, ३५०, ३६९, ३७८, ४२०, ४४०, ४४९ और ६५१ । प्रवचनसार में गा० १८५ में करेदि रूप आया है ।
(११) जैन शौरसेनी में महाराष्ट्री के समान कृ धातु के रूप कुणेदि और कुणइ रूप भी निम्न गाथाओं में पाये जाते हैं । यथा
कुणेदि-स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा गा० १८२, १८८, २०९, ३१९, ३७०, ३८८, ३८९, ३६६ और ४२० । प्रवचनसार में गाथा ६६ और १४९ में कुणादि क्रिया व्यवहत की गयी है।
स्चामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा में गा० २०९, २२७, २८६ और ३१० में कृ धातु के कुणइ रूप का व्यवहार पाया जाता है।
जैन शौरसेनी में कृ धातु का करेइ रूप भी मिलता है। स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा गा० २२५ में यह रूप आया है।
(१२ ) जैन शौरसेनी में क्त्वा के स्थान में त्ता का व्यवहार होता है । यथाजाण+त्ता = जाणित्ता; वियाण + त्ता = वियाणित्ता । णयस + चा = णयसित्ता; पेच्छ + ता = पेच्छिता।
(१३ ) जैन शौरसेनी में क्त्वा के स्थान पर य भी पाया जाता है। यथाभवीय ( प्रवचनसार गा० १२ ); संस्कृत के आपृच्छ के स्थान पर आपिच्छ रूप आया है । गहिय र गृहीत्वा ( स्वा० का० गा० ३७३ )।
(१४) स्वामिकात्तिकेयानुप्रेक्षा में क्त्वा के स्थान पर चा का व्यवहार मिलता है। यथा-किच्चा कृत्वा ठिच्चाद स्थित्वा ।
शौरसेनी प्राकृत के दूण और महाराष्ट्री के ऊण प्रत्यय भी संस्कृत के क्त्वा के स्थान में जैन शौरसेनी में पाये जाते हैं। यथा-गमिऊण (गोम्मटसार गा० ५०),