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अभिनव प्राकृत-व्याकरण
क- य सामाइयं सामायिकम् ( स्वा० का० गा० ३७२) कम्मविवायं ८ कर्मविपाकं (स्वा० का० गा० ३७२) सुहयरो सुखकरः ( स्वा० का गा० ३७२) नेरइया र नैरयिकाः (गो० सा० जी० ६३ ) वियसिदियेसु < विकलेन्द्रियेषु ( गो० सा० जी ८९) एयवियलक्खा < एकविकलाक्षाः ( गो० सा० जी० ९०) गाहयादहकाः (गो० सा० जी १७३) पत्तेयं प्रत्येक (गो० सा जी०१८४ ) ओरालियर औरालिकं ( गो० सा० जी १८४ ) क = अ-स्वरशेष अलिअं अलीकं ( स्वा० का० गा० ४०६) आलोओ आलोकः (स्वा० का गा० ३४४ ) नरए < नरके (प्र० सा० गा० ११४) पज्जा पट्टिएण< पर्यायार्थिकेन (प्र० सा० गा० ११४) वेउनिओ वैक्रियिकः (प्र० सा० गा० १७१)..
(५) जैन शौरसेनी में मध्यवर्ती क, ग, च, ज, त, द, और प का लोप विकल्प से पाया जाता है । अथवा यों कह सकते हैं कि इनका लोप अनियमित रूप से पाया जाता है। यथा
सुयकेवलिमिसिणो< श्रुतकेवलिनमृषयः ( प्रव०सा०गा० ३३ )-तकार का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान पर य श्रुति ।
लोरपदीवयरा < लोकप्रदीपकरा-ककार का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान में य श्रुति। ( प्रवचनसार गा० ३६)
वयणेहि ८ वचनैः ( प्र० सा० गा० ३४ )-चकार का लोप अवशिष्ट स्वर के स्थान पर य श्रुति।
सयलं < सकलम् ( प्र०सा०गा० ५१)-क का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान पर य श्रुति ।
उवओगो< उपयोगः (६० सं० गा० ४)-4 के स्थान पर व।
बहुभेया< बहुभेदा (द्र० सं० गा० ३६)-दकार का लोप और अवशिष्ट स्वर के स्थान पर य श्रुति।
सुहाउ< शुभायुः (द्र० सं० गा० ३८)-यकार का लोप और उ स्वर शेष ।
सायारं सकारं (प्र०सं०गा० ४२)-ककार का लोप और अवशिष्ट आ स्वर के स्थान पर य श्रुति ।