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अभिनव प्राकृत-व्याकरण आर्ष प्राकृत है, और इसीसे परवर्ती काल में नाटकीय अर्धमागधी, महाराष्ट्री और शौरसेनी निकली हैं। आचार्य हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के अध्ययन से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि एक ही भाषा के प्राचीन रूप को आर्ष प्राकृत और अर्वाचीन रूप को महाराष्ट्री कहा गया है। आर्ष प्राकृत से अर्धमागधी अभिप्रेत है। उन्होंने "आर्षम्" ८१३ सूत्र में 'आष प्राकृतं बहुलं भवति' तथा 'आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते' कथन में आर्ष-ऋषिभाषित प्राकृत के अनुशासन की बात कही है।
अर्धमागधी के प्रथमा एकवचन में मागधी के समान ए प्रत्यय जोड़ा जाता है। में समाप्त होनेवाले धातु के त स्थान में अर्धमागधी में ड होता है । अर्धमागधी की यह प्रवृत्ति भी मागधी से मिलती जुलती है। अर्धमागधी की वर्णपरिर्वतनसम्बन्धी निम्न विशेषताएँ है।
(१) अर्धमागधी में दो स्वरों के मध्यवर्ती असंयुक्त क के स्थान में सर्वत्र ग और अनेक स्थलों में त और य होते हैं। यथा
ग -- पगप्पर प्रकल्प-प्र के स्थान पर प, क को ग और संयुक्त ल का लोप तथा द को द्वित्व।
आगर < आकर-क के स्थान पर ग। आगास < आकाश-क को ग और श के स्थान पर दन्त्य स । पगार प्रकार-प्र को प और क को ग। सावग< श्रावक-संयुक्त रेफ का लोप, श को स और क के स्थान पर ग । विवजगद विवर्जक -- संयुक्त रंफ का लोप, ज को द्वित्व और क को ग। अहिगरणं < अधिकरणं -- ध के स्थान पर ह और क के स्थान पर ग । णिसेवग< निषेवकः-न के स्थान पर ण, मूर्धन्य ष को स और क को ग । लोगे- लोक: - क के स्थान पर ग और एकवचन का ए प्रत्यय । आगइ आकृति:-क के स्थान पर ग, ककारोत्तर - को अ, तकार का लोप ! त--आराहत आराधक-ध के स्थान ह, क के स्थान पर त । सामातित < सामायिक- के स्थान पर त और क के स्थान पर त । विसुद्धितर विशुद्धिक-तालव्य श को दन्त्ये स और क को त। अहित < अधिक-ध के स्थान पर ह और क को त।
साउणित < शाकुनिक-तालव्य श को दन्त्य स, ककार का लोप और उ स्वर शेष, न को ण तथा अन्तिम क के स्थान पर त ।
णेसजिा < नैषधिक-ऐकार के स्थान पर एकार, ष को स, ध के स्थान पर ज और क को त हुआ है।
वीरासणित < वीरासनिक-न को ण और क के स्थान पर त ।