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अभिनव प्राकृत व्याकरण - (१ ) प्रकृति--स्वभावादि अर्थों में तृतीया होती है। यथा--पइईअ चारूस्वभाव से सुन्दर, गोत्तेण गग्गो, रसेण महुरो, सुहेण जाइ। किं जगणिजोव्वणविउउणमत्तेज जम्मेणं ।
( २ ) दिव धातु के योग में विकल्प से द्वितीया विभक्ति भी होती है। यथा-- अच्छेहि अच्छा वा दोव्वइ--पाशों से या पाशों को खेलता है।
( ३ ) समपूर्वक णा धातु के कर्म की विकल्प से करण संज्ञा होती है। यथापिअरेण, पिअरं वा सण्णाणइ-पिता के साथ मेल से रहता है।
( ४ ) फलप्राप्ति या कार्यसिद्धि को बतलाने के लिए तृतीया विभक्ति होती है। यथा--दुवालसवरसेहिं वाअरणं सुणइ---द्वादशवर्षेः व्याकरणं श्रूयते ।
(५) सह, साम, सायं और सद्धं के योग में तृतीया विभक्ति होती है । यथा--पुत्तेण सहाअओ पिआ--पुत्रेण सहागतः पिता; लक्खणो रामेण सारं गच्छइ, देवदत्तो जग्यदत्तेण समं नहाति ।
(६) पिधं, बिना, नाना शब्दों के साथ तृतीया, द्वितीया या पञ्चमी विभक्ति होती है । यथा--पिधं रामेण, रामत्तो, रामं वा; जलेन, जलत्तो, जलं वा; जलं बिना कमलं चिट्ठतुं ण सका।
( ७ ) जिस विकृत अंग के द्वारा अङ्गी का विकार मालूम हो, उस अंग में तृतीया विभक्ति होती है । यथा--पाएण खंजो, कण्णेन बहिरो--पैर का लँगड़ा; कान का बहिरा।
( ८ ) जिस कारण या प्रयोजन से कोई कार्य किया जाता है या होता है, उसमें तृतीया विभक्ति होती है। यथा
दंडेण घडो जाओ-दण्डे के कारण घड़ा उत्पन्न हुआ। पुण्णेश दिट्रो हरि-पुण्य के कारण हरि दिखलायी पड़े। अज्झणेण वसइ-अध्ययन के प्रयोजनन से रहता है ।
( ९ ) जो जिस प्रकार से जाना जाय, उसके लक्षण में तृतीया विभक्ति होती है। यथा
जडाहि तावसो-जटाओं से तपस्वी जान पड़ता है। गमणेण रामं अणुहरइ-गमन में राम के सदृश है ।
(१०) कार्य, अर्थ, प्रयोजन, गुण तथा इसी प्रकार उपयोग या प्रयोजन प्रकट करने वाले शब्दों के योग में उपयोज्य या आवश्यक वस्तु को तृतीया विभक्ति होती है। यथा