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अभिनव प्राकृत - व्याकरण
प्रह गृह्य शक लै उदू + स्था
गेण्ड गेज्झ, घेण्प सक्कुण, सक्क
Poste गेदि, घेण्पदि कुद, सक्कद fearfa उत्थेदि
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सुआ रोव
रोवद रोददि
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बुडू दुद्दीअ
वहीअ लिहीअ
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रुद्र मस्ज
दुह्य
उद्य
लिह्य
तद्धित, समास, कारक आदि सभी अनुशासन शौरसेनी में प्राकृत के समान ही होते हैं। वर्णपरिवर्तन के नियम भी शौरसेनी में प्राकृत के समान ही हैं। केवल त कद और थका होना ही शौरसेनी की विशेषता है ।
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वही अदि लिही अदि
जैनशौरसेनी
नाटकीय शौरसेनी से भिन्न होने के कारण प्रवचनसार, कार्त्तिकेयानुप्रेक्षा, गोम्मटसार, समयसार आदि ग्रन्थों की भाषा को पृथक् भाषा माना गया है 1 इस भाषा की मूलप्रवृत्ति शौरसेनी की होने पर भी इसके ऊपर प्राचीन अर्धमागधी का प्रभाव है । जैनशौरसेनी का साहित्य नाटकों की अपेक्षा पुरातन है । षड्खण्डागम के मूल सूत्र भी जैनशौरसेनी में लिखे गये हैं । कुन्दकुन्दाचार्य और स्वामिकार्त्तिकेय ईस्वी प्रथम शताब्दी के विद्वान् हैं । अत: हमारा अनुमान है कि जैन शौरसेनी का विकसित और परिवर्तित रूप ही नाटकीय शौरसेनी है । यही कारण है कि नाटकीय शौरसेनी में जैन शौरसेनी की अनेक प्रवृत्तियां विद्यमान हैं। कुछ विद्वान् शौरसेनी के इस भेद को स्वीकार नहीं करते, पर हमारे विचार से यह नाटकीय शौरसेनी की अपेक्षा भिन्न है। जैनशौरसेनी की निम्न प्रमुख विशेषताएँ हैं ।
( १ ) त के स्थान पर द और थ के स्थान पर ध का होना । यथा
विगदरागो विगतरागः संजुदो संयुतः
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-त के स्थान पर द ( प्र० स० गा० १४ )
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