________________
२३६
अभिनव प्राकृत व्याकरण वाला अपनी बांधने की क्रिया के द्वारा अश्व को वशंगत करना चाहता है । अतः बन्धन व्यापार द्वारा अश्व ही कर्ता को अभीष्ट है, उड़द नहीं । उड़द की चाह अश्व को हो सकती है और उसके प्रलोभन से उसका बांधना सुगमतर हो सकता है, परन्तु कर्ता को उसकी चाह नहीं है। अत: मासेसु में कर्म संज्ञा नहीं हुई।
क्रिविशेष द्वारा जो कर्त्ता को अत्यन्त अभीष्ट है, उसीकी कर्म संज्ञा होती है । जैसे—पयेण ओदनं भुंजइ-दूध से भात खाता है, वाक्य में दूध भी भात की तरह कर्ता को प्रिय है, पर कर्ता अपने भोजन व्यापार द्वारा, जिसे सबसे अधिक पाना चाहता है, वह भात है, दूध नहीं। यतः दूध पेय है, यह तो केवल भोजन क्रिया के सम्पादन में सहायक है, अत: यहां पर पयेण की कर्म संज्ञा नहीं है, ओदनं की है।
( १ ) अनुक्त कर्म को बतलाने के लिए कर्म कारक में द्वितीया विभक्ति का प्रयोग होता है । यथा-हरिं भजइ, गामं गच्छइ, वेअं पढइ, पुत्थकं पढइ, झाणं झाईअइ, अत्थं चिव्वइ ।
( २ ) सप्तमी और प्रथमा विभक्ति के स्थान पर क्वचित् द्वितीया विभक्ति होतो है। यथा-विज्जुज्जोमं भरइ रत्ति-विद्युदुद्योतं भरति रात्र्याम्-यहाँ ससमी के स्थान पर द्वितीया हुई है।
चउवीसं पि जिणवरा--चतुविशतिरपि जिनवरा:-यहां प्रथमा के स्थान पर द्वितीया हुई है।
( ३ ) संस्कृत के समान प्राकृत में भी द्विकर्मक धातुओं के योग में अपादान आदि कारकों में भी द्वितीया विभक्ति होती है। यथा--
( १ ) माणवअं पहं पुच्छइ-बच्चे से रास्ता पूछता है। (२) रुक्खं ओचिव्वइ फलाइं--वृक्ष के फलों को इकट्ठा करता है ।
( ३ ) माणवअं धम्म सासइ-माणवक से धर्म कहता है। ( ४ ) शी, स्था और आस् धातुओं के पूर्व यदि अधि (अहि) उपसर्ग लगा हो तो इन क्रियाओं के आधार की कर्म संज्ञा होती है। यथा--अहिचिट्ठइ वइउंठं हरी।
(५) अहि और नि उपसर्ग जब एक साथ विश् (विस) धातु के पहले आते हैं, तो विश् के आधार को कर्म कारक होता है। यथा-अहि निवसइ सम्मग्गं ।
(६ ) यदि वस् धातु के पूर्व उव, अनु, अहि और आ में से कोई भी उपसर्ग लगा हो तो क्रिषा के आधार को कर्मकारक होता है। यथा
१. कमरिण द्वितीया २।३।२. पा० । २. सप्तम्या द्वितीया ८।३।१३७ हे.